Friday 26 August 2016


                                   मनमर्ज़ियाँ 







बिस्तर के एक कोने पे बैठ कर  शीशी खोली, एक हाथ की उँगलियों को शीशी का सहारा बना दूसरे हाथ की हथेली को सिकोड़  उसमे गड्ढा सा बनाया,  शीशी से गोलियों का टप्प से गिरना देख रही थी , जैसे  आखिरी सीढ़ी से कभी कूदा  करती थी, पता नहीं कहाँ दुबक गए वो सीढियां कूदने वाले दिन, सोचते-सोचते  अचानक फिक्क से हंस दी, ऐसी हंसी जो खुद अपने  कानो तक बमुश्किल पहुंची और फिर  ऐसी ही अपनी एक फिक्क वाली हंसी याद आ गई. उन दिनों  सैर को जाया करती थी, सुबह या शाम अब  याद नहीं  , सूरज के उगते वक़्त या ढलते वक़्त  घर से निकलती थी राम जाने वैसे फर्क भी क्या पड़ता है इतने सालो बाद ,  वो फिक्क वाली हंसी याद है यही क्या कम है, कैसे कुछ बातें,  कुछ इंसान  दिमाग से नहीं निकलते सालों की गर्द  से कैसे गर्दन बाहर  निकाल हाथ हिलाते हुए अपनी याद दिला जाते हैं हालांकि कई बार हिलते हुए हाथ और चेहरे की झलक के इलावा कुछ याद नहीं आता , एक आदमी था जो  हर रोज़ सैर पे मिला करता था, कभी वो आगे निकल जाता कभी पीछे रह जाता, वैसे अगर   पूरी ईमानदारी से याद किया जाए  तो वो आदमी अक्सर आगे ही निकल जाता था , दोनों एक ही मोहल्ले के वासी हैं  इसका  शत  प्रतिशत यकीन था , वो ऐसे की सैर वाली जगह के आस पास एक ही ढंग का मोहल्ला था ,  रोज़ की मुलाक़ात कभी कभी की मुस्कराहट में तब्दील हो गई थी, लेकिन बात-चीत तो क्या नमस्ते तक भी नहीं पहुंची थी, हाँ तो एक दिन सैर के बाद  पास की दूकान में गई , क्या लेना था अब याद नहीं लेकिन कुछ तो लेना ही होगा तभी गई थी ,  दिमाग पे ज़ोर डालना हमेशा से ही  गैर जरुरी लगा , पीछे पीछे वो आदमी भी पहुँचा  , उसे भी कुछ सामान लेना ही रहा होगा, उस आदमी को देखते ही  फिक्क से हंस दी, हंसी भी ऐसी की अपने  कानो तक क्या वो तो और लोगों के कानों को भी गुलज़ार कर गई , वो न हँसा  न मुस्कुराया,   उस दिन भी  खुद से बातें कर रही थी जैसा की अक्सर किया करती थी , इसकी वजह शायद किसी का न होना था या कुछ और अच्छा किया जो भगवान् ने याद नहीं रहने दिया, खुद से बातें करने में   ये  कष्ट है की बात में से बात निकलती जाती है और असल बात किसी बरामदे  रुकी रह जाती है, वापस लौट उसका हाथ थाम लाना पड़ता है. उस दिन के बाद सैर पर जब भी  मिला मुंह ही फेर उसने हर बार, आज क्यों याद आई ये बात , शीशी, गोलियां और उस आदमी का कोई लेना-देना है क्या, लगता तो नहीं, खैर. .....


                                     दो और दो का जोड़ हमेशा, चार कहाँ होता है ,                                                                                      सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला

पूरा एक साल हो गया या थोड़ा ज्यादा , इसी बात को रुक रुक कर धीमे धीमे कह के देखती हूँ, बोल भी सकती थी लेकिन कहना मुझे थोड़ा काम मुश्किल लगा, एक एक शब्द को कंठ में घूमते हुए महसूस करना फिर ज़बान और दाँतों के बीच से निकल खुद अपने ही कानों में पड़ना, मुझे क्या ज्यादा हिट करता है , ये ख्याल या ये आवाज़ ? कुछ भी नहीं, ये एक ख्याल है जो और हज़ारों ख्यालों की तरह उड़ जाएगा, आवाज़ कुछ पल दिमाग में खलल पैदा करेगी फिर वो भी चुप मार बैठ जायेगी और सब कुछ अनवरत चलता रहेगा जैसे चलता रहा है,
                       आसमानो पे मन मर्ज़ियाँ उकेरनी आसान होती है , ये आसानी तब बेढब लगती है जब आसमान टूटता नहीं , चुप से पिघलता भी नहीं,

अब कुछ नहीं सूझता न किस्सा न कहानी , माथे अब कोई मौसम नहीं उतरता , बर्फ़ नहीं जमती ना ही गर्म पानी के फ़व्वारे छूटते हैं और ना ही शांत नदी सी बहती है, कहीं शून्य भी दस्तक नहीं देता , जब कोई मौसम नहीं तो कहीं कुछ नहीं, ब्रम्हांड की नीरवता भी नहीं.

उम्मीदें लौटती हैं, लेकिन कब का कोई जवाब नहीं और आँखें सिकोड़ माथे को हथेली की ओट दे देखना अभी सीखा नहीं और न कोई इरादा है ,

                 सुबह से बारिश हो रही है और आज बारिश की आवाज़ से आँख खुली , खिड़की के बाहर सब कुछ भीगा हुआ बस मन सूखा पड़ा था , कमरे के एक कोने पे खड़े हो सोच रही थी काम कहाँ से शुरू किया जाए , एक मन ने कहा आज क्या जरुरी है की कुछ किया जाए, झुक कर रौशनी में फर्श को देखा कुछ क़दमों के निशान थे उधेड़बुन चल रही थी की साफ़ करूँ या बारिश के मिजाज़ को देखती रहूँ फिर लगा ऐसे तो ज़िन्दगी ही ठहर जायेगी, कभी कभी ज़िंदा होने के अहसास के लिए रोज़मर्रा के काम करते रहना जरुरी हो जाता है.


किसी का होना सच नहीं,

और
किसी का न होना भी
सच नहीं,
होने ना होने के बीच
हो सकते हैं
वो अनगिनत तारे
जो
बचे रह जाते हैं
कालखंड की निगाह से'


न इस तरफ
न उस तरफ
ठीक लकीर पर खड़ी
संभावनाएं
सीख जाती हैं
हथेली पर रखना
बुद्ध को.



अभरक के हज़ार मौसमों में से,
किसी एक पर
अज्ञात फूंक मार दे
और
अगली साँस आने से पहले,
एक ख्याल आने से भी पहले ,
बाँध दे जुगनू के कांधों से.



एक कहानी जो कभी शुरू नहीं होती ,
गुज़रती है ,
उन रास्तों से
जो अंतहीन
मिलते जाते हैं एक दुसरे से,
और
कहीं नहीं पहुँचते।


माचिस की एक तीली जलाओ
और सुनो पंजों के बल खड़े हो कर,
आती हुई प्रतिध्वनि
भूलभुलैया से ,


बचा है क्या प्रेम ???


































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