Monday 29 December 2014



ये एक प्रेम पत्र हो सकता है / था।




है या नहीं इसे तय करने का अधिकार हमारे सिवा बाकी सभी ने खुद को दे रखा है।










लोग कहते हैं की मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ , किसी ने मुझसे पूछा की क्या इस रिश्ते के लिए मैंने कोई सीमा तय की है ? तो सिर्फ इतना ही जवाब दिया मैंने की नहीं मेरे प्रिय के लिए किसी तरह की कोई सीमा नहीं,

कोई कहता है की तुम्हारे प्रति मेरा लगाव साफ़ दिखता है मैं इसे स्वीकार करू या नहीं , तो बताओ तो भला मैंने कब इनकार किया की लगाव नहीं है ,
सुखद है ये सुनना की मेरे लिखे हर लफ्ज़ में से , मेरे रचे हर चित्र में से तुम झांकते हो , तुम्हारा अहसास है ,
लेकिन
मैंने ये भी तो कहा न की तुम्हे नहीं आना है कभी लौटकर मुझ तक ,
मैंने ऐसी कोई राह बनाई ही नहीं की तुम आ सको मुझ तक,
हम दो किनारों पर साथ चलते हुए भले एक दूसरे को देख कर हाथ हिला दें और मुस्कुरा दें ,
इससे बड़ा उपहार ज़िन्दगी हमें दे नहीं सकती थी,
हाथ में पकड़ी परछाई को नाम मिले न मिले नाक-नक्श मिल जाए तो और कुछ सर झुका कर माँगने को रह नहीं जाता,

इन बातों को करते हुए हम खिलखिला उठते हैं, दबी सांस के साथ काश कहते हुए।

एक ख़त है तुम्हारे लिए, अक्सर सोचा है की ड्रावर में पड़े रहने की बजाय इसे तुम तक पहुँच जाना चाहिए , किसी दिन अगर तुम ये ख़त पढ़ सको तो क्या होगा तुम्हारा जवाब , उस ख़त का जवाब भी तो ये ख़त ही है , है न।








तुम मेरा विश्वास हो

तुम गए सब गया

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