Thursday 11 December 2014

एक धसका सा उठा   .....






शिलॉंग छोड़े हुए पूरे दो साल हो गए. इन दो सालो में  न याद करते हुए भी शिलॉंग  बेहद याद आया . कभी अनजाने से रहे उस शहर को बहुत सारे मोड़ों पर खड़ा पाया. किसी शहर को हम अक्सर वहां के लोगों के साथ बिताये  वक़्त के लिए याद करते हैं  लेकिन मैंने शिलॉंग  को अपने अनदेखे सपने और कुछ अचानक में पूरे हुए सपनो के लिए याद किया है या यूँ कहिये की चाहा है .2010   में जब बॉम्बे छोड़ के शिलॉंग जाना पड़ा  था तो हर सूरत उदासी हुई थी. बॉम्बे की सरल और मस्त ज़िन्दगी के बाद शिलॉंग ? पता नहीं कैसा होगा.  कितनी ऐसी जगहें होंगी जहाँ मैं बीत चुके और आने वाले सारे मौसमों को पी सकुंगी? लोग कैसे होंगे इसकी फ़िक्र कभी नहीं रही. फ़िक्र रही तो दौड़ते रास्तों और टिमटिमाती रौशनियों और चुप पड़ी बेंचों की.  बॉम्बे की सड़के  बॉम्बे की शौपिंग बॉम्बे का मौसम , लोकल ट्रेन में दौड़ के चढ़ना  और फिर खूब हँसना, जब कुछ करने में मन न लगे तो किसी लोकल ट्रेन में पहले स्टेशन से आखिरी स्टेशन तक आते जाते रहना . ये सब कहाँ मिलने वाला था शिलॉंग  में .शिलॉंग  अपनी पूरी खूबसूरती के साथ मेरा स्वागत करने के लिए तैयार था लेकिन मैं तो माथे पे शिकने डाले उससे लड़ने को तैयार रहती थी. अक्सर सबसे खूबसूरत और मासूम  वही प्रेम कहानियाँ होती है जिनकी बुनियाद  में ढेर सी पहली मुलाक़ात की लडाइयां होती हैं.पुरानी होती लड़ाइयों के साथ मैंने और शिलॉंग  ने दोस्ती कर ली. शिलॉंग  की पतली संकरी  गलियों में घूमना , बिना गिनती किये कभी हँस-हँस कर दोहरे होते हुए   और कभी घुटनों पर हाथ रख हाँफते हुए  सीढियाँ चढ़ना ,  हर घर में फिर वो किसी चौड़ी सी सड़क किनारे हो या किसी जंगल के बीच छुपा सा हो सबमें  बेहिसाब खिड़कियाँ होती,  ढेर सारी खिडकियों वाले उन  घरों को निहारना , हर खिड़की पर जालीदार परदे,  लगता था जैसे धूप के साथ- साथ सपनो को भी आने की पूरी छूट  है. सपनो के चले आने पर किसी की कोई रोक नहीं है लेकिन उन्हें पूरा करना कई बार बस यूँ ही बिना किसी वजह के मुल्तवी करना पड़ता है. व्यू पॉइंट से नीचे एक रास्ता जाता था, उबड़-खाबड़ सा , जंगलों से होता हुआ कच्चा  सा रास्ता जो शहर में बने एक बड़े से घर के बगल में निकलता था. कई बार सोचा की अब जब भी शहर जाने का मन होगा तो उसी रस्ते से जाउंगी पैरों पैरों , झाड़ियों के बीच बनी पगडंडियों पर उछलते -कूदते , काँटों से बचते  नीचे उतरूंगी. लेकिन पूरे दो , नहीं ढाई साल सोचती ही रह गई. पता नहीं कभी जा क्यूँ नहीं पाई उस रस्ते पर. कितनी बार तो ऐसा होता है न की हम बीच सड़क पर खड़े होते हैं और तय नहीं कर पाते की दाएँ मुड़ा जाए या बाएँ. और हम किसी तरफ नहीं मुड़ते बस सीधी राह चल पड़ते हैं. फिर भी मुड़ -मुड़  कर उन मोड़ों को देखना नहीं भूलते. मुझे शायरा ने कई बार कहा की मैडम चलिए मैं आपके साथ चलती हूँ वापस उसी रस्ते से नहीं आयेंगे टैक्सी करके आ जायेंगे. जिस रस्ते को देखने की इच्छा थी उस पर चलने के लिए साथ भी मिल रहा था फिर भी पता नहीं क्यूँ  नहीं गई. बहुतसारी  पीछे छोड़ दी गई बातों की कोई वजह नहीं होती , कितना भी सोच लो कोई वजह नहीं दिखती. बस यूँ ही ...... कह कर छोड़ देना होता है. अब जब जोधपुर से जाने का समय हो गया है तो शिलॉंग  याद आ रहा है . कितनी अजीब सी बात है किसी से दूर जाते हुए कोई और याद आ जाता है. जबकि दोनों में कोई समानता भी नहीं.  जैसे कोई फोटो देखते हुए उससे जुड़े किस्से बातें याद आ जाती हैं और फोटो थामे हाथ नीचे हो जाता है और आँखें किसी और समय किसी और पल की फिल्म से गुजरने लगती है.अभी सामान बंधना शुरू नहीं हुआ  फिर भी सोच रही हूँ की इस शहर से क्या ले के जाउंगी साथ. एक गहरी उदासी जो हर शहर के साथ चली आती है. इस शहर की कोई ऐसी सड़क नहीं जो आँख मूंदते ही सामने आ खड़ी हो. ऊपर को जाती हुई शिलॉंग  की सड़क का वो मोड़ जहाँ बिना पलक झपकाए किसी का इंतज़ार किया था, शहर से बाहर की तरफ बना वो रिजोर्ट जिसकी सीढ़ियों पर बैठ कॉफ़ी की चुस्कियां  ली गई थी बीते दिनों का हाल पीते हुए. 
हम अलग अलग लोगो से मिलते हैं और हर मिलना एक याद बन जाता है,   और कोई दो याद को एक जैसा नहीं कह सकते . एक याद हमेशा ही थोड़ी ज्यादा करीब लगती है.  शिलॉंग के बड़े से ताल के किनारे गोल-गोल घूमती सड़क पर चलते हुए , कोलम्बस को याद करते हुए उस ताल  का अपने भीतर उतरना. कितने निशान , कितनी तो उदासियाँ और एक मोहब्बत , कहाँ तक याद करे कोई.  अब किसी नए शहर में बसते हुए , फिर से एक बार गलियों , सड़कों के चेहरे पहचानते हुए  उस शहर को अपना परिचय देना नहीं सुहाता. जोधपुर से तो इतना भी परिचय न हुआ की ये सड़क कहाँ जाती है. इसमें जोधपुर का क्या दोष. और मेरा भी क्या दोष जो इससे मोहब्बत न हो सकी. शिलॉंग में गहरे हुए महबूब के क़दमों  के निशान जोधपुर तक नहीं आ पाए.  आज अचानक एक धसका सा उठा जिसे बीच में ही  दो धुंधले से हाथों  ने थाम लिया. 










 

 

रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो !

हम सुखन कोई न हो , और हम जुबाँ  कोई न हो !!!






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