Wednesday 31 December 2014









कलाई में बंधी गिरह जल गई थी,

राख गले पे रख दहकते शोले निगल लिए थे,

अपनी बाहों से उतार

बीती रात रख छोड़ी है उँगलियों में लिपटी नफरत तुम्हारे सिरहाने,

मैं भस्म हो चुकी

तुम इसे ओढ़ पाये तो जी उठोगे.


किसी एक पल में होता है

सब कुछ सोच चुकने के बाद का खालीपन

और

उसी एक पल में तुम्हारी बातें, कहकहे, उदासियाँ,

और

अधखुले, कपकपाते

तुम्हारे नाम की गिरह कसते

अधर

उसी एक पल में समाया होता है

सब कुछ.................सब कुछ ...

Monday 29 December 2014



ये एक प्रेम पत्र हो सकता है / था।




है या नहीं इसे तय करने का अधिकार हमारे सिवा बाकी सभी ने खुद को दे रखा है।










लोग कहते हैं की मैं तुम्हारे प्रेम में हूँ , किसी ने मुझसे पूछा की क्या इस रिश्ते के लिए मैंने कोई सीमा तय की है ? तो सिर्फ इतना ही जवाब दिया मैंने की नहीं मेरे प्रिय के लिए किसी तरह की कोई सीमा नहीं,

कोई कहता है की तुम्हारे प्रति मेरा लगाव साफ़ दिखता है मैं इसे स्वीकार करू या नहीं , तो बताओ तो भला मैंने कब इनकार किया की लगाव नहीं है ,
सुखद है ये सुनना की मेरे लिखे हर लफ्ज़ में से , मेरे रचे हर चित्र में से तुम झांकते हो , तुम्हारा अहसास है ,
लेकिन
मैंने ये भी तो कहा न की तुम्हे नहीं आना है कभी लौटकर मुझ तक ,
मैंने ऐसी कोई राह बनाई ही नहीं की तुम आ सको मुझ तक,
हम दो किनारों पर साथ चलते हुए भले एक दूसरे को देख कर हाथ हिला दें और मुस्कुरा दें ,
इससे बड़ा उपहार ज़िन्दगी हमें दे नहीं सकती थी,
हाथ में पकड़ी परछाई को नाम मिले न मिले नाक-नक्श मिल जाए तो और कुछ सर झुका कर माँगने को रह नहीं जाता,

इन बातों को करते हुए हम खिलखिला उठते हैं, दबी सांस के साथ काश कहते हुए।

एक ख़त है तुम्हारे लिए, अक्सर सोचा है की ड्रावर में पड़े रहने की बजाय इसे तुम तक पहुँच जाना चाहिए , किसी दिन अगर तुम ये ख़त पढ़ सको तो क्या होगा तुम्हारा जवाब , उस ख़त का जवाब भी तो ये ख़त ही है , है न।








तुम मेरा विश्वास हो

तुम गए सब गया

Tuesday 23 December 2014



एक ख्वाब था सादा सा

न आँखें थी न बातें थी न ही अर्ज़ियाँ थी,

न शब्द न ताने न उल्हाने

न पते थे न चिट्ठियाँ

और

न ही था इंतज़ार,




उन्ही भले दिनों में

सीपियों पर चलता लड़का

बेहद खुश था,
उसने सराब की कुछ बूदें
लड़की के प्यासे होंठों पर रख दी
दिशाहारा लड़की हँसती रही,
हँसती गई आबशार सी
और
डूब गई।

सपनो पर गिरहें बाँधते लड़के की जेब में
आज भी
पानी की बूँदें एक रेज़गारी सी खनकती हैं

*********************

सराब ----मृगतृष्ण
आबशार----झरना
दिशाहारा- दिग्भ्रमित

Sunday 14 December 2014



ख्वाब में देखे ख्वाब उंगली में लिपटे रह जाते हैं और बेहद टीसते हैं


ऊँगली से लिपटे ख्वाब रंग बदल देते हैं उँगलियों का, गहरा नीला , इस नीले रंग में मिला होता है एक शांत मुस्कराहट, मीठी सी टीस और एक सुखद अहसास का रंग भी और तब ज़िन्दगी खूबसूरत लगती है.





बड़े बड़े काँटों के बीच से चुनना बिखरे आधे और कुछ पूरे फूल। उन्ही के बीच कुछ सूखे फूल मिलना , वाकई ज़िन्दगी खूबसूरत है।




जब स्कूल में थी तो वॉयलिन सीखना चाहती थी शायद इसलिए की उस समय जितनी भी किताबें पढ़ती थी लगभग उन सभी के नायक वॉयलिन बजाया करते थे लेकिन सीखा सितार. शायद माँ की चाहना होगी. शाम के वक़्त जब सितार बजता तो माँ की शांत आँखें देख लगता ज़िन्दगी खूबसूरत है




आज सब कुछ पीछे छोड़ के मन करता है कंधे पे पिट्ठू टांगू और चल दूं कहीं को भी. तयशुदा मंजिलें कभी भी मुझे अपनी और नहीं खींचती . आँखें बंद कर के जब सफ़र पे निकलती हूँ तो खुद को गर्म दोपहर में सुनसान कच्चे रस्ते पे पाँव -पाँव चलते हुए देखती हूँ. लेकिन हर बार की तरह इस बार भी ये सफ़र तब तक के लिए मुल्तवी कर देती हूँ जब तक बेटा बड़ा नहीं हो जाता. बेटा कहता है की आपका मन है तो चली जाओ, कोई भी प्रॉब्लम आती है तो अपने साथ सोल्यूशन ले के आती है बस उस छिपे हुए सोल्यूशन को खोजना होता है. जब आप नहीं रहोगी तो मैं अपने सारे काम खुद करना सीख ही लूँगा. उसका ये कहना की जब आप नहीं रहोगी मुझे हुलसा देता है. उसे खुद में रमे देखती हूँ तो लगता है की ज़िन्दगी खूबसूरत है.




ज़िन्दगी तब भी बेहद खूबसूरत थी जब मेरे पास वैसी कोई प्रेम कहानी नहीं हुआ करती थी जैसी स्कूल में कुछ एक लड़कियों के पास हुआ करती थी. स्कूल के पीछे की दीवार कूद कर आया लड़का जब डंडा बजाते चौकीदार के डर से वापस भाग जाता और उसकी वो प्रेयसी हम चार-पाँच लड़कियों के बनाये घेरे में खड़ी गालों पे अंकित उस प्रेम निशानी को सहेज रही होती तो मुझे हैरत होती थी. आज भी अपना वो हैरतज़दा चेहरा देख पाती हूँ उस गोल घेरे के बाहर  खड़ी हो कर. लेकिन आज तक भी ये नहीं समझ पाई की हैरत किस बात की हुआ करती थी. उम्र के उस मोड़ पर उस प्रेम कहानी के रोमांच को समझने में सर खपाने से बेहतर लगता की रसोई में गैस के पास बैठ कर जल्द से जल्द श्रीकांत खत्म की जाए. कुछ बातें , कुछ हैरतें सिर्फ और सिर्फ अपनी होती हैं, लहू-मांस की तरह. जिन्हें किसी से भी साझा नहीं किया जा सकता , कभी-कभी खुद से भी नहीं. पिछली उम्र जब आज दौड़ कर उँगली थाम लेती है तो लगता है

ज़िन्दगी खूबसूरत है.

https://www.youtube.com/watch?v=kowARsNeMqo



Lambi Judaai - Reshma - LIVE
इस गीत को सुनते हुए न तो उदासी तारी होती है और न ही तुमसे दूरी का अहसास होता है। इसे सुनते हुए डूब जाती हूँ तुम में। तुम्हारे कंधे से लगी सुनती हूँ तुम्हारी आवाज़। गहरी ,धीमी आवाज़ ,तुमने सुनी है कभी अपनी आवाज़ ,मुझसे बात करते हुए, कितनी खामोश और मुझ तक पहुँचने को आतुर।अचानक ही बेहद धीमे स्वर में बोलने लगते हों शायद इसलिए की मेरी आँखों में खुद कों देखना चाहते हो। खुल के रह गई पायल को उठाते हो और मेरी फैली हथेली की बजाय जेब में रख लेते हो। हमारे बीच कभी किसी सवाल के लिए जगह नहीं रही।


ज़िन्दगी खूबसूरत है, है न!

























तुम्हारे सीने पे रख ख्वाब उठाया तो रेशम-रेशम फिसलती सांस आधी आँखों में अटक कर रह गई.





इस सर्द रात दालान की सीढ़ियों पर
तुम्हारे साथ बैठना
जगती सुबह जब उठने लगेगा कुहरा
तो
बचे रह जायेंगे
मेरी गर्दन के इर्द गिर्द इत्र से तुम्हारे शब्द
















******************** **********************
















अलाव के सामने
तुम्हारे काँधे से लगी सुनती हूँ तुम्हे
घुल जाते हैं मीठे खजूर से तुम्हारे शब्द
पहुँचती है सिर्फ तुम्हारी आवाज़ मुझ तक
गहरी धीमी आवाज़
तुम देखते हो मेरे हिलते कुंडल को
और
मैं देखती हूँ तुम्हे
ये आज की ही बात है
या
है रोज़ की

Friday 12 December 2014



रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो !

हम सुखन कोई न हो , और हम जुबाँ कोई न हो !!




चली आई हूँ ऐसे ही एक शहर में जहाँ कुछ भी जाना पहचाना  नहीं दिखता. न सड़के, न पेड़, और न सड़क किनारे पसरी हुई ये बेंच ही । किसी में कोई कौतुहल नहीं मुझे जानने का, मुझ से जान पहचान बढाने का । मुझे भी कोई इच्छा ,कोई जिज्ञासा नहीं होती की उन्हें जान लूँ , एक बार छू लूँ । मुझे इस शहर में रहना ही है ये शहर जगह दे या न दे । मज़बूरी है इस शहर की भी और मेरी भी। शहर कभी किसी को बेदखल नहीं करते.इस शहर ने एक उदासीन दोस्त की तरह मुझे थोड़ी जगह दे दी . यहाँ की हर चीज़ पे एक ठण्ड सी जमी है। सब कुछ अपनी गति से होता हुआ, चलता हुआ मेरे आगे से गुज़रता जाता है और मैं हाथ बढ़ा कर उसे थामना भी नहीं चाहती। इस अजाने शहर की एक सड़क पर आ खड़ी होती हूँ। यहाँ हर चीज़ है , खूबसूरत पत्तियों वाले पेड़, बच्चों की खिलखिलाती हंसी, एक दूसरे में डूबे चेहरे, सब कुछ तो है जो हम अपने आस-पास देखना चाहते हैं. बातें हैं, हवा में ऐसी सुगंध है की सांस भर ली जाए फेफड़ों में । सब कुछ खूबसूरत । उसी शहर की उसी सड़क पर चलते हुए लगता है सड़क के आखिरी हिस्से पे आ गई हूँ । एक चेहरा दिखता है मेरी ओर  देखता हुआ । पहचान की एक भी रेखा नहीं उभरती उस चेहरे पर. नाक तीखी है या गोल समझ नहीं आता। जानने के लिए हाथ बढ़ाती हूँ तो हाथ हवा में झूल जाता है। वो अपरिचित सा चेहरा हर हाथ, हर ऊँगली की ज़द से बाहर है। पतले -पतले होंठ स्नेहसिक्त मुस्कराहट की एक महीन सी रेखा में पगे हैं. । उन होंठों की तरफ बढ़ती उँगलियों की छुअन में अपने ही होंठों को महसूस करती हूँ । पतले होंठों पे उंगलियाँ फिराते उठ कर बैठ जाती हूँ। वाकई में बैठी हूँ या सपने में उठ गई हूँ पता नहीं चलता। उस जगह हूँ जहाँ ख्वाब और हकीकत आपस में मिल जाते हैं और खूबसूरत सा सच अँजुरी में भर देते हैं की जीना और मरना दोनों गिरवी रख दिए गए हैं। जिए तो कोई किस तरह जिए और मरे तो कोई क्यों मरे।एक याद को खिसका कर दूसरी याद के लिए जगह बनाने की कोशिश करती हूँ फिर भी उन्हें आपस में रलने मिलने से रोक नहीं पाती। वो जगहें तो याद आती हैं जहाँ कुछ यादो के पते मिल जाया करते थे लेकिन अब सड़कों के नाम पते भूलने लगी हूँ। उसकी तरफ कदम बढ़ाते उसे देखती भी रहती हूँ बस पहचानने की कोई कोशिश नहीं करती. भूरा सा कोट जिस पर आड़ी तिरछी काली लाइने हैं, बालों से लगता है उसे यहाँ खड़े एक उम्र गुज़र गई होगी लेकिन उस गुजरी उम्र ने चेहरे पे जाने क्यूँ कोई निशान नहीं छोड़ा. उसने कितने बरस इस सड़क पर बिठाये होंगे कहना मुश्किल है. उसके पैरो को देखने की कोशिश में कभी चमकती रेत दिखती है तो कभी कूटी हुई रोड़ियाँ . एक भरम उसके पैरों , उसके पीछे छूटे सालों को ढक रखता है. उस सड़क के आखिरी छोर पर खड़े उस आदमी ने न कुछ सुनाना चाहा न किसी अचरज को कोई जगह ही दी. पीली गुनगुनी धूप का जब समय हुआ तब उस ने मेरी बाहों में रसभेरियां भर दी। मैं उसकी तरफ देखना चाहती थी लेकिन निगाहें कहीं दूर उसे पार करते हुए देख रही थी। उससे कुछ कहना चाहती थी लेकिन होंठों ने मुस्कुरा के बस गर्दन हिला दी।वक़्त रेत घड़ी था फिर भी ठहरा हुआ, जैसे जो वो देने आया था वो मुझे मिलना ही था। रसभेरियां मेरे सपनो सी खट्टी और तुम्हारे शब्दों सी मीठी थी.। इन्हें बाँहों में लेते खूब जोर से साँस खींची और सीने में तुम्हारी महक भर गई. इन रसभेरियों का क्या करू नहीं जानती। इन्हें इसी अजाने शहर की किसी, सपनो को सुई धागे से सिलती लड़की, के लिए गहरे दबा दूं या अपने साथ ले आऊँ जब भी लौटुं इस शहर से.




ख्वाब में देखे ख्वाब उंगली में लिपटे रह जाते हैं और बेहद टीसते हैं।

Thursday 11 December 2014

एक धसका सा उठा   .....






शिलॉंग छोड़े हुए पूरे दो साल हो गए. इन दो सालो में  न याद करते हुए भी शिलॉंग  बेहद याद आया . कभी अनजाने से रहे उस शहर को बहुत सारे मोड़ों पर खड़ा पाया. किसी शहर को हम अक्सर वहां के लोगों के साथ बिताये  वक़्त के लिए याद करते हैं  लेकिन मैंने शिलॉंग  को अपने अनदेखे सपने और कुछ अचानक में पूरे हुए सपनो के लिए याद किया है या यूँ कहिये की चाहा है .2010   में जब बॉम्बे छोड़ के शिलॉंग जाना पड़ा  था तो हर सूरत उदासी हुई थी. बॉम्बे की सरल और मस्त ज़िन्दगी के बाद शिलॉंग ? पता नहीं कैसा होगा.  कितनी ऐसी जगहें होंगी जहाँ मैं बीत चुके और आने वाले सारे मौसमों को पी सकुंगी? लोग कैसे होंगे इसकी फ़िक्र कभी नहीं रही. फ़िक्र रही तो दौड़ते रास्तों और टिमटिमाती रौशनियों और चुप पड़ी बेंचों की.  बॉम्बे की सड़के  बॉम्बे की शौपिंग बॉम्बे का मौसम , लोकल ट्रेन में दौड़ के चढ़ना  और फिर खूब हँसना, जब कुछ करने में मन न लगे तो किसी लोकल ट्रेन में पहले स्टेशन से आखिरी स्टेशन तक आते जाते रहना . ये सब कहाँ मिलने वाला था शिलॉंग  में .शिलॉंग  अपनी पूरी खूबसूरती के साथ मेरा स्वागत करने के लिए तैयार था लेकिन मैं तो माथे पे शिकने डाले उससे लड़ने को तैयार रहती थी. अक्सर सबसे खूबसूरत और मासूम  वही प्रेम कहानियाँ होती है जिनकी बुनियाद  में ढेर सी पहली मुलाक़ात की लडाइयां होती हैं.पुरानी होती लड़ाइयों के साथ मैंने और शिलॉंग  ने दोस्ती कर ली. शिलॉंग  की पतली संकरी  गलियों में घूमना , बिना गिनती किये कभी हँस-हँस कर दोहरे होते हुए   और कभी घुटनों पर हाथ रख हाँफते हुए  सीढियाँ चढ़ना ,  हर घर में फिर वो किसी चौड़ी सी सड़क किनारे हो या किसी जंगल के बीच छुपा सा हो सबमें  बेहिसाब खिड़कियाँ होती,  ढेर सारी खिडकियों वाले उन  घरों को निहारना , हर खिड़की पर जालीदार परदे,  लगता था जैसे धूप के साथ- साथ सपनो को भी आने की पूरी छूट  है. सपनो के चले आने पर किसी की कोई रोक नहीं है लेकिन उन्हें पूरा करना कई बार बस यूँ ही बिना किसी वजह के मुल्तवी करना पड़ता है. व्यू पॉइंट से नीचे एक रास्ता जाता था, उबड़-खाबड़ सा , जंगलों से होता हुआ कच्चा  सा रास्ता जो शहर में बने एक बड़े से घर के बगल में निकलता था. कई बार सोचा की अब जब भी शहर जाने का मन होगा तो उसी रस्ते से जाउंगी पैरों पैरों , झाड़ियों के बीच बनी पगडंडियों पर उछलते -कूदते , काँटों से बचते  नीचे उतरूंगी. लेकिन पूरे दो , नहीं ढाई साल सोचती ही रह गई. पता नहीं कभी जा क्यूँ नहीं पाई उस रस्ते पर. कितनी बार तो ऐसा होता है न की हम बीच सड़क पर खड़े होते हैं और तय नहीं कर पाते की दाएँ मुड़ा जाए या बाएँ. और हम किसी तरफ नहीं मुड़ते बस सीधी राह चल पड़ते हैं. फिर भी मुड़ -मुड़  कर उन मोड़ों को देखना नहीं भूलते. मुझे शायरा ने कई बार कहा की मैडम चलिए मैं आपके साथ चलती हूँ वापस उसी रस्ते से नहीं आयेंगे टैक्सी करके आ जायेंगे. जिस रस्ते को देखने की इच्छा थी उस पर चलने के लिए साथ भी मिल रहा था फिर भी पता नहीं क्यूँ  नहीं गई. बहुतसारी  पीछे छोड़ दी गई बातों की कोई वजह नहीं होती , कितना भी सोच लो कोई वजह नहीं दिखती. बस यूँ ही ...... कह कर छोड़ देना होता है. अब जब जोधपुर से जाने का समय हो गया है तो शिलॉंग  याद आ रहा है . कितनी अजीब सी बात है किसी से दूर जाते हुए कोई और याद आ जाता है. जबकि दोनों में कोई समानता भी नहीं.  जैसे कोई फोटो देखते हुए उससे जुड़े किस्से बातें याद आ जाती हैं और फोटो थामे हाथ नीचे हो जाता है और आँखें किसी और समय किसी और पल की फिल्म से गुजरने लगती है.अभी सामान बंधना शुरू नहीं हुआ  फिर भी सोच रही हूँ की इस शहर से क्या ले के जाउंगी साथ. एक गहरी उदासी जो हर शहर के साथ चली आती है. इस शहर की कोई ऐसी सड़क नहीं जो आँख मूंदते ही सामने आ खड़ी हो. ऊपर को जाती हुई शिलॉंग  की सड़क का वो मोड़ जहाँ बिना पलक झपकाए किसी का इंतज़ार किया था, शहर से बाहर की तरफ बना वो रिजोर्ट जिसकी सीढ़ियों पर बैठ कॉफ़ी की चुस्कियां  ली गई थी बीते दिनों का हाल पीते हुए. 
हम अलग अलग लोगो से मिलते हैं और हर मिलना एक याद बन जाता है,   और कोई दो याद को एक जैसा नहीं कह सकते . एक याद हमेशा ही थोड़ी ज्यादा करीब लगती है.  शिलॉंग के बड़े से ताल के किनारे गोल-गोल घूमती सड़क पर चलते हुए , कोलम्बस को याद करते हुए उस ताल  का अपने भीतर उतरना. कितने निशान , कितनी तो उदासियाँ और एक मोहब्बत , कहाँ तक याद करे कोई.  अब किसी नए शहर में बसते हुए , फिर से एक बार गलियों , सड़कों के चेहरे पहचानते हुए  उस शहर को अपना परिचय देना नहीं सुहाता. जोधपुर से तो इतना भी परिचय न हुआ की ये सड़क कहाँ जाती है. इसमें जोधपुर का क्या दोष. और मेरा भी क्या दोष जो इससे मोहब्बत न हो सकी. शिलॉंग में गहरे हुए महबूब के क़दमों  के निशान जोधपुर तक नहीं आ पाए.  आज अचानक एक धसका सा उठा जिसे बीच में ही  दो धुंधले से हाथों  ने थाम लिया. 










 

 

रहिये अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो !

हम सुखन कोई न हो , और हम जुबाँ  कोई न हो !!!






Monday 8 December 2014

खुली आँखों से जिया तुम्हारे साथ का एक खुश लम्हा...





तुम्हारे थोडा सा पीछे अधलेटी सी हूँ  और तुम पढ़ रहे हो कोई किताब , कोई कहानी कोई उपन्यास या कुछ और  बस पढ़ रहे हो और पढ़ते-पढ़ते जो अच्छा लगता है तुम सुनाते  हो मुझे , बीच -बीच में हाथ से टहोक देते हो  "सुन रही हो न " , मेरी एक छोटी सी ह म्म से आश्वस्त हो जाते हो , तिलिस्म से  जागते हैं तुम्हारे शब्द , जागती आँखों से देखते हुए ख्वाब से एक और ख्वाब में तैर जाती हूँ , बदन पर पड़े हुए तिल  की तरह उग आती है तुम्हारी आवाज़ और नाभि के भंवर से होती हुई लहू में घुल जाती है , अच्छा लगता है तुम्हारी आवाज़ में अतीत की किसी याद , किसी समर्पण , किसी बिछोह की कहानी सुनना , अच्छा लगता है तुम्हारी आवाज़ सुनना , जहाँ बैठी हूँ वहां से तुम्हारी पीठ दिखती है मन करता है हाथ रख दूं , दिखती है तुम्हारी गर्दन , तुम्हारे बाल , कभी मन क्यों नहीं किया तुम्हारे बालों  में उंगलियाँ फिराने का आश्चर्यचकित हूँ , गर्दन पर दिखता  है एक तिल जैसे संभाल रखा हो स्पर्श कोई पुराना , तुम मुड़ते हो और मुझे आँखें बंद किया हुआ पाते हो , जब भी सोचती हूँ तुम्हे आँखें अन्दर की तरफ खुल जाती हैं , तुम धीरे से मेरे सर के नीचे का तकिया ठीक करते हो मुझे आराम से लिटाने के   लिए और रख देते हो किताब वहीँ सिरहाने , मेरे सुने बिना तुम्हे भी कहाँ अच्छा  लगता है पढना .


कभी- कभी सोचता हूँ.......




मोतियों जैसी खनकती तुम्हारी हँसी

के ग़ुम होने का दोष किसे दूँ।




प्रेम झील सी गहरी आँखें
जो किसी के
दिल से ज्यादा गहरी थीं
उस झील के सूख जाने का
दोष किसे दूँ।

खामोश पलकों से मुस्कुराने को बाध्य
ऊपरी होंठों के सिकुड़ते आयाम
का दोष किसे दूँ।

अल्हड बलखाती ठुमक चाल के
सीधे हो जाने का दोष किसे दूँ।

गुनगुनाती हँसी से किसी को भी
आदेश देने की स्वतन्त्रता
संभल कर बोलने लगी
तो
दोष किसे दूँ।

अब भी
कभी- कभी सोचता हूँ...