Friday 26 September 2014

दिल्ली से बनारस

अचानक ही प्रोग्राम बना की कल बनारस चलते  है. पूरे पांच दिन की छुट्टियां मिल रही थी. हम आठ लड़कियों को लगा की कुबेर का खज़ाना मिल गया है. बनारस की हम आठ लड़कियां दिल्ली में एन.सी.इ.आर.टी. में पढ़ते थे  और वहीँ हॉस्टल में रहते थे. पहली मुश्किल की एच ओ डी को छुट्टी की एप्लीकेशन कैसे दी जाए. आशा भटनागर मैम  के सामने छुट्टी की एप्लीकेशन रखना मतलब शेर के मुंह में हाथ डालना. खैर तय हुआ की सभी जायेंगे एक साथ उनके रूम में. हम सभी  ने  तय किया की  लोकल गार्जियन के घर जाने की बात कहेंगे. हमारा बहाना समझते हुए भी मैम ने छुट्टी के लिए हाँ कर दी. लोकल गार्जियन को ये बताना भी जरुरी था की घर जा रहे हैं ऐसा ना हो की वो इन पांच दिनों में फोन कर दें या मिलने आ जायें. उन दिनों मोबाइल नहीं हुआ करते थे और हम हौस्ट्लर्स के लिए एक फोन था जो की वार्डन की गैलरी में रखा होता था. गैलरी का गेट बंद रहता था और हमें गेट के सरियों में से हाथ डाल  के फोन उठाना होता था. कॉल सिर्फ रिसीव कर सकते थे. एक ने कहा इतनी जल्दी रिज़र्वेशन नहीं मिलेगा. मैंने कहा देखते हैं क्या होगा. स्टेशन पहुँचने का वक़्त तय कर हम सब घर चले गए.
                                                                                                                                                                     नियत समय पर स्टेशन पर इकट्ठे हुए. काशी विश्वनाथ का टिकट लेना था. रिज़र्वेशन तो दूर की बात आर ए सी भी नहीं मिला. वेटिंग टिकट ले कर चढ़ गए गाड़ी में. इतना यकीन था की टी टी उतारेगा नहीं. उस समय दिन के दो बजे के आस-पास चलती थी काशी विश्वनाथ. हम आठों टॉयलेट के पास न्यूज़ पेपर बिछा कर बैठ गए. गप और गाने शुरू हो गए लेकिन कितनी देर? सात बजते-बजते हम सबका बुरा हाल हो गया. ट्रेन फुल थी तो बर्थ मिलने की कोई गुंजाइश भी नहीं थी. मैंने सबसे कहा की जिसको जहाँ जगह मिले पैर फैला कर सो जाओ. एक ने कहा की जिसकी बर्थ है वो आ गया तो? तो मैंने कहा सॉरी बोल के उठ जाना. मुझे भी जहाँ जगह मिली वहीँ सो गई. कितनी रात थी पता नहीं, अचानक लगा कोई हिला रहा है. एक झटके में उठ के बैठ गई. देखा एक सज्जन से व्यक्ति हाथ में टिकट और चेहरे पर असमंजस का भाव लिए मुझे उठाने की कामयाब कोशिश कर चुके हैं. उन्होंने कहा माफ़ कीजिये मेरे टिकट के हिसाब से ये बर्थ मेरी है. उन्होंने मुझे टिकट दिखाने की कोशिश की. मैंने कहा जी बिलकुल-बिलकुल ये बर्थ आपकी ही है. उन्हें भौचक्का सा छोड़ मैंने अपनी चादर समेटी और ये जा वो जा. जाते-जाते सुना "ये आजकल की लडकियां.......".मैं  पहुँच गई वापस वहीँ टॉयलेट के पास. एक-एक करके दस मिनट में  बाकी सभी भी आ गए. हमने एक दूसरे को देखा और गगनचुम्बी ठहाका लगाया.

Thursday 25 September 2014


जयपुर के दैनिक खुशबु में , बहुत बहुत शुक्रिया वर्षा जी
















Friday 19 September 2014

17 साल हो गए शादी को लेकिन माँ की नज़र में आज भी वही सिलबिल्ली सी लड़की हूँ जो खाना बनाने में ना-नुकुर करती है. पति के शहर से बाहर जाने पर माँ जरुर फोन करती है ये पूछने के लिए की खाना क्या बनाया है. माँ अक्सर मुझसे सब्जियों के भाव भी पूछती हैं, मैं भी उन्हें बताने के लिए ही सारी सब्जियों के भाव पता रखती हूँ. उन्हें ये भी पता है की मैं बिना सब्जियों के भाव पता किये खरीदती हूँ, आज माँ ने फिर फोन किया की
 "खाना क्या बनाया है"
"आपको क्या लगता है की मैं खाना नहीं बनाती?"
"हाँ! ऐसा ही लगता है"
"पिज़्ज़ा, पास्ता बनाया है या रोटी सब्जी"?
"रोटी सब्जी" मैंने बड़े धैर्य से जवाब दिया.
"अच्छा तुम्हारी तरफ टमाटर क्या भाव हैं" माँ ने बड़ी सहजता से पूछा.
"माँ , एक बात बताइए, मैं सब्जी वाले के पास जाऊं और उससे पूछूं ---भैया टमाटर क्या भाव हैं?, वो कहेगा----100 रुपये किलो, मैं कहूँगी --haaaaawwwwww इतने महंगे! अच्छा  एक किलो दे दो.
"तुम इतने महंगे टमाटर खरीदोगी?" , माँ ने मुझे बीच में टोकते हुए कहा.
"आप पूरी बात तो सुनिए, हाँ तो मैं गई सब्जी वाले के पास और मैंने उससे टमाटर का भाव पूछा, ठीक!, अब मैं

दुबारा गई सब्जी वाले के पास और कहा की भैया एक किलो टमाटर दे दो, अब आप ही बताइए माँ इन दोनों

सेंटेंस में सिर्फ "haaaaaaawwwwwwwww इतने महंगे!" इसी बात का तो तो फर्क है न .
" बड़ी सुन्दर लग रही है अपनी माँ से ऐसे बात करते हुए "
और माँ ने फोन रख दिया.
एक-दो दिन में फिर फोन करेंगी माँ, आखिर माँ है ना!

खाना बनाते वक़्त अपने 16 साल के  बेटे से बतियाना मजेदार अनुभव होता है. स्कूल से आते ही वो रसोई में मेरे पास खड़ा हो दिन भर की रामकहानी सुना डालता है. इस तरह मैं भी एक बार फिर से  अपने स्कूली दिनों को  जी लेती हूँ . जब वो बताता है की किस दोस्त के साथ क्या बदमाशी  की, आज किस बात पे डांट पड़ी तो लगता है उसके साथ ही स्कूल में मैं भी दिन बिता के आई हूँ. उस दिन भी कुछ ऐसा ही चल रहा था, मैं खाना बना रही थी और वो बातें बताने में मशगूल था. उसकी बातों को सुनते , जवाब देते मैंने हींग का डब्बा उठाया और उसकी नाक के आगे रख दिया. बातों में मशगूल बेटे ने जोर की सांस खीची और क्या है ये कहता हुआ उचल पड़ा. मैंने मुकुराते हुए कहा "हींग". " पानी दो माँ", "आक्थू", "हद्द है", "आप भी न माँ" जैसे वाक्यों का लम्बा सिलसिला चला. मैं हँसते -हँसते दोहरी.
                         बात यहीं ख़त्म नहीं हुई, सपूत का अक्सर कहना मैं आपका एडवांस वर्ज़न हूँ मैं भूल सा गई थी की आज उसने याद दिला दिया.  शाम को बेहद व्यस्त सा दिखता हुआ मेरे पास आया
"माँ ,सुनो तो"
मैंने  लैपटॉप पे निगाहें जमाये-जमाये कहा "बोलो", लेकिन तब तक तो देर हो चुकी थी. बेटा  अपनी पसीने से भीगी रिस्ट वाच का बैंड मेरी नाक के आगे रख चुका  था. अब हंसने की बारी उसकी थी और नाक-भौं सिकोड़ने   की मेरी.

Tuesday 16 September 2014





मैं एक रेत के ऊंचे से टीले पर बिना किसी दिशा की तरफ मुंह किये बैठना चाहती हूँ, चाहती हूँ हवा भी कुछ देर के लिए वहीँ बैठी रहे मेरे पास और जब लौटे तो मेरे लौटने के तमाम निशान भी लेती जाए.



मैं किसी अनजान शहर की किसी व्यस्त सी सड़क पर टहलना चाहती हूँ जहाँ एक भी चेहरा मुझे न पहचानता हो लेकिन मैं उन सारे चेहरों की तरफ देख कर मुस्कुराना चाहती हूँ.


बेटे की तरफ देखती हूँ वो सो रहा है मैं उसे उठाना नहीं चाहती चाहे सारे ही जरुरी काम क्यूँ न पीछे छूट जाएँ, आज सुबह बड़ा जी किया की मैं भी ऐसे ही किसी के भरोसे गहरी नींद सो जाऊं की वक़्त होने पर वो मुझे उठा देगा .


अपने महबूब से मिलने के लाख जतन करती हूँ लेकिन हर बार सारी कोशिशें "फिर कभी" के टैग के साथ मुल्तवी कर दी जाती हैं . दुनिया के सारे जरुरी कामो की लिस्ट पर टिक करते हुए मेरी सबसे जरुरी चाह कहीं पीछे रह जाती है, मैं अपने भरोसे की उंगली नहीं छोडती की एक दिन महबूब के गले जरुर लगूंगी.


एक दिन वो सारे सच बोल देना चाहती हूँ जो मेरे गले में अटके पड़े हैं और देखना चाहती हूँ की कितनी इमारते भरभरा कर गिरती हैं और तब मैं इस और उस दुनिया की सबसे प्यारी मुस्कराहट मुस्कुराना चाहती हूँ.










उन सारी बातों पर जिनपे बस नहीं चलता या यूँ कहना चाहिए की कभी बस चलाने की कोशिश नहीं की , हर किसी को धता बता कर खुद को भी , एक बार बस चलाने की कोशिश करना चाहती हूँ,नतीजो की परवाह किये बिना. हालांकि हम बिना नतीजा जाने परखे कोई काम करना नहीं चाहते और न ही करते हैं , एक बार बस एक बार मैं नतीजों को मोड़ कर गद्दे के नीचे छुपा देना चाहती हूँ.






बहुत सारे सवालों को गले में जलते कोयलों में फूंक देना चाहती हूँ और वो बोलना चाहती हूँ जो हर वक़्त मेरी पीठ पर बेताल सा सवार रहता है.






कानों पे बंद मार अपने चेहरे के सारे मुखौटे न्याग्रा फाल्स में उछाल देना चाहती हूँ, किसी जहाज़ में समंदर की किसी अंतहीन यात्रा पर नहीं निकलना चाहती न ही किसी अरण्य में खोना चाहती हूँ, इसी दुनिया में बहुत सारे लोगों के बीच रहना चाहती हूँ.










अपनी जगह करीने से रखी हुई हर चीज़ , हर बात को बेतरतीबी के रंग में रंग देना चाहती हूँ सुकून के लिए.

















लिस्ट बहुत लम्बी है और एक दिन अपने हर जरुरी काम को पीछे रख के इस पूरी लिस्ट पर टिक लगाना है , इस टिक लगाने की उम्मीद में बाकी सारे काम मुस्तैदी से पूरे करते हुए जिए जा रही हूँ.










( painting by kamal rao)

omar

arabic/ hebrew  भाषा में बनी ओमर एक प्रेम कहानी है, फिलिस्तीन और इजराइल के बीच  संघर्ष की भी कहानी है , दोनों ही कहानियाँ बखूबी साथ चलती हैं .  पहली कहानी है बचपन के तीन दोस्त , ओमर , तरीक और अमजद की  , तीनो  दोस्त फिलिस्तीन के स्वयंभू स्वतन्त्रता सेनानी के एक ग्रुप का हिस्सा  हैं जिनका लीडर तारीक है . तीनो दोस्त फिलिस्तीन की आज़ादी के प्रति अपना समर्पण दिखाने के लिए एक इजराइली सैनिक की हत्या का प्लान बनाते हैं, गोली अमजद चलाता है,सैनिक मर जाता हैऔर उसकी हत्या के आरोप में ओमर पकड़ा जाता है. इजराइली अधिकारी  रामी ओमर को अपना  इनफॉर्मर बनने की शर्त पर रिहा करता है. रामी तारीक को पकड़ना चाहता है और इस काम में वो ओमर की मदद चाहता है , इनकार करने की सूरत में रामी ओमर को नादिया ,( जो की तारीक की  बहन है और जिसे ओमर बेहद प्यार करता है ) ,की ज़िन्दगी बर्बाद करने की धमकी देता है. ओमर अपनी ज़िन्दगी बहुत सारे फैसले नादिया को ध्यान में रख कर करता है.फिल्म ट्रैजिक है और किसी भी रिश्ते से ज्यादा दोस्ती को ध्यान में रख कर बुनी गई है.
                                                                                   दूसरी कहानी है ओमर और नादिया के प्रेम की. कहानी है प्रेम करने वालों के बीच शक पैदा करने वाले उन्ही के दोस्त की.
                               फिल्म की शुरुआत में ओमर फिलिस्तीन और इजराइल को अलग करती ऊंची  दीवार पर आसानी से चढ़ जाता है, उसे गोली लगने ही वाली होती है की वो एक झटके से रस्सी का सहारा ले दूसरी तरफ उतर जाता है . अपनी प्रेमिका नादिया से मिलने की उमंग में वो अपनी  हथेलियों पर लग आई खरोचों को भी अनदेखा कर देता है. उसका इस तरह दीवार पर चढ़ना  मुझे तब तक सहज लगता है जब तक की फिल्म के आखिर के एक दृश्य में ओमर बहुत कोशिशों के बाद  उस दीवार पर किसी की मदद से ही  चढ़ पाता है , अपनी इस असाहयता  पर ओमर का रोना मुझे स्तब्ध कर देता है  और मैं ओमर के साथ रोती हूँ की उसने अपने प्रेम को खो दिया है,  प्रेयसी से मिलने की बैचेनी की जगह उदासी ने ले ली है.  अब कोई नहीं उस दीवार के दूसरी तरफ जिससे मिलने की उत्कंठा उससे एक बेहद मुश्किल काम आसानी से करा देती थी. मैं जीती हूँ उन छोटे-छोटे पलो को ओमर और नादिया के साथ जिनसे उनकी ये प्रेम कहानी बुनी गई है. चाय के कप के नीचे रख कर दिए जाने वाले प्रेम पत्र, ख़त देते समय नादिया की भोली मुस्कराहट और उसके साथ मैं भी हज़ार सपने बुन लेती हूँ. ओमर नादिया से जब भी मिलता है उसे ख़त देता है,कितना अलग सा ख्याल है न जब मिले तब  उस वक़्त की और आने वाले वक़्त की बातें कर ली लेकिन जो वक़्त तुम्हारे बिना गुज़रा उसका हिसाब ?
                                                                                         जेल से छूटने के बाद ओमर देखता है की उसका बचपन का दोस्त अमजद नादिया से मिलने उसके स्कूल जाता है, नादिया अमजद  को  ख़त देती है. ऐसे ख़त तो ओमर और नादिया का हिस्सा थे. ओमर के साथ-साथ मैं भी नादिया पर शक करती हूँ कि वो बदल गई है . नादिया ओमर पर शक करती है , वो कहती है की लोग कह रहे हैं की ओमर इनफॉर्मर बन गया है वरना वो जेल से इतनी जल्दी कैसे छूट गया. इस बात का ओमर के पास कोई जवाब नहीं.  फिल्म के नायक ओमर के रूप में  बाकरी जिनकी ये पहली फिल्म है अपनी आँखों और चेहरे के हाव भाव से पूरी तरह कन्विंस करते हैं.
               मोहब्बत और जंग में सब जायज़ है इस बात को अमजद ने पूरी तरह जिया है. अमजद, ओमर और तारीक  से कहता है की वो और नादिया एक दूसरे से  प्यार करतें हैं और नादिया प्रैगनेंट है , ओमर और तारीक अमजद पर यकीन करते हैं , रिश्ते और मोहब्बत से ज्यादा दोस्ती पर यकीन. तारीक को नादिया से कुछ कहने या पूछने का मौका नहीं मिलता और ओमर अपने महबूब से ज्यादा अपनी समझ और दोस्त पर यकीन करता है. ये फिल्म हमें ये भी बताती है की हमेशा सब कुछ एक जैसा नहीं रहता, बचपन के दोस्त भी नहीं. ओमर हर तरह की मदद करता है अमजद की शादी नादिया से कराने में. शादी के लिए हाँ कहने से पहले नादिया ओमर से बात करना चाहती है वो नहीं सुनता, उसे ख़त देना चाहती है वो नहीं लेता
                          ओमर कहानी है प्यार, धोखे, संघर्ष, उम्मीद, यकीन, दोस्ती और सैक्रिफाइस की.
                                                                                                                              ओमर कुछ समय बाद जाता है अमजद से मिलने, अमजद तो नहीं मिलता ओमर को घर पर नादिया और उसके दो बच्चे मिलते हैं.
                                                                     ओमर के रूप में एडम बाकरी अपने  सहज अभिनय से मुझमे एक भरोसा एक उम्मीद जगाते हैं और मैं फिल्म देखने के लिए उनकी उंगली थाम लेती हूँ. बाकरी बेहद सरल  ढंग से ओमर का जीवन मुझे दिखाते हैं. 
                                                                                                           जब ओमर  अमजद के गले पे चाकू रखता  है  तो नादिया के लिए उस की तड़प दिखती है फिर क्यूँ वो नादिया से ज्यादा अमजद पर भरोसा करना चुनता  है ?
                                                                                                    नादिया से मिलने पर ओमर उससे उसके बड़े बेटे की उम्र पूछता है, नादिया कहती है की उसके बेटे का जन्म शादी के एक साल तीन महीने बाद हुआ था , नादिया ओमर से माफ़ी मांगती है की उसने ओमर पर शक किया.
                                                                              एक पल सिर्फ एक पल में ओमर समझ जाता है अमजद के दिए धोखे को और अब तक चमकती उसकी आँखें बुझने लगती हैं. इसके बाद की फिल्म देख कर लगता है की ओमर अमजद से बदला लेगा . निर्देशक Hany abu-assad ने ये हम दर्शकों की समझ पर छोड़ दिया है की ओमर ने अमजद का क़त्ल किया या नहीं. मेरी समझ में ओमर अमजद को नहीं मारता क्यूंकि अमजद के मरने से नादिया की ज़िन्दगी पर फर्क पड़ेगा. 
                            फिल्म के अंत में ओमर ये भी सुनिश्चित करता है की भविष्य में भी कोई अमजद को परेशान न कर सके. ओमर के हाथ में रिवाल्वर है और सामने इजराइली ऑफिसर रामी और उसके साथ के दो लोग हैं. गोली की आवाज़ आती है फिर स्क्रीन पर अँधेरा छा जाता है. ओमर ने रामी को मार कर आत्महत्या जैसा ही काम किया है. रामी के साथ आये ऑफिसर किसी भी हालत में ओमर को जिंदा नहीं छोड़ेंगे. और इस तरह ओमर धोखे की वो कहानी ख़त्म कर देता है जिसे अमजद ने शुरू किया था.


                                                                  ओमर एक ऐसी मालूम सी  कहानी है जिसे शायद हम सब जानते हैं की इस कहानी में ऐसा होगा लेकिन निर्देशक के साथ साथ एक्टर्स ने इसे आहिस्ता-आहिस्ता सांस लेते हुए सुनाया है और यहीं ये फिल्म अलग सी और ख़ास बन जाती है. एक ऐसी ट्रेजिक लव स्टोरी जिसमे हम उसके दुखद अंत को याद नहीं करते बल्कि ओमर-नादिया के प्रेम को याद रखते हैं.















Monday 15 September 2014

finding fenny

फाइंडिंग फेंनी देखी, पंकज कपूर, डिंपल कपाडिया , नसीरुद्दीन शाह ये नाम ऐसे थे की कोई भी थिएटर तक खिचा चला जायेगा. लेकिन फिल्म देख कर लगा की इन तीनो ने ही बुरी तरह ठगा है. बहुत सारे लोगो को ये फिल्म बेहद अच्छी लगी, क्यूँ लगी मैं समझ नहीं पाई. कहानी के नाम पे शायद लेखक के दिमाग में कुछ हो जिसे निर्देशक परदे पे उतार नहीं पाए. फाइंडिंग  फेंनी  किसकी कहानी है? प्यार को ढूँढने की? अपने आप को ढूँढने की ? शायद निर्देशक को भी समझ नहीं आया .
         एक्टर्स ने उतना ही किया है जितना इस लचर सी कहानी में करने की गुंजाईश है. एक सीन में डिंपल कपाडिया की स्कर्ट पीछे से फटती है, किस लिए था ये सीन? हास्य के लिए? अगर यही स्कर्ट टखनो पर से फटती तो जाहिर सी बात है कोई हास्य उत्पन्न नहीं होता. यानी कि निर्देशक का कहना है की किसी महिला के एक विशेष जगह से कपडे फटने पर हमें हंसना चाहिए. कोई जरुरत नहीं थी इस सीन की.
                                           एंजी( दीपिका पादुकोण)  इतनी कंफ्यूज क्यूँ है,  क्या कोई भी लेडी तभी बोल्ड होती है जब वो अपने दोस्त से कहती है की उसने आखिरी बार छ साल पहले किस किया था और वो अपने दोस्त के साथ सैक्स करती  है? लेकिन अपने इस रिश्ते को वो माई के सामने स्वीकारने के लिए तैयार नहीं. दिन की रौशनी में जब साविओ(अर्जुन कपूर) एंजी को किस करता है तो वो साविओ को थप्पड़ मारती है और चिल्लाती है की वो ऐसी नहीं है और साविओ को सिर्फ दोस्त मानती है लेकिन उसी रात वो साविओ के साथ सैक्स करती है. दोस्ती और प्यार का ऐसा घालमेल सिर्फ होमी अदजानिया ही दिखा सकते हैं.
                                                   डॉन पेड्रो (पंकज कपूर) आर्टिस्ट कम और अहमक ज्यादा लगते हैं. रोज़ी के घुटने से स्कर्ट उठा कर उस घुटने का क्या स्केच बनाते हैं,कौन सा मास्टर पीस उन्हें वहां मिलेगा ये निर्देशक ही समझ सकते हैं. डॉन पेड्रो अंत में जो पेंटिंग बनाते हैं, उस पेंटिंग को देख कर रोज़ी हतप्रभ रह जाती हैं, डॉन पेड्रो भारी  भरकम डायलॉग बोलते हैं उसके बाद अच्छा होता की हम दर्शकों को भी उस पेंटिंग की एक झलक के बजाए पूरी तरह पेंटिंग  देखने का मौका मिलता. 
     फिल्म के आखिर में नसीरुद्दीन शाह ऐसा क्या देखते हैं की वो आगे का रास्ता अकेले तय करने का फैसला करते हैं, मुझे भी वो देखना था. नसीरुन्द्दीन शाह ने फर्डी की भूमिका में अपने आप को वेस्ट करते हुए न्याय किया है. नसीरुद्दीन शाह को देख के लगता है की फिल्म में उन्हें बाकी किसी से कोई मतलब नहीं, नसीर अपने रोल से पूरी तरह कन्विंस दिखते हैं.
शायद ये एक इंटेलेक्चुअल फिल्म बनाने की कोशिश की गई है जो गले नहीं उतरती.
फिल्म में इसका  एक गाना सुकून देता है लेकिन उसे भी देखने की बजाए आँख बंद कर सुनना ज्यादा सुहाता है.गाना शुरू होते ही पैर अपने आप थिरकने लगते है आप झूमना शुरू करते ही हैं की गाना ख़त्म हो जाता है और आप ठगा सा महसूस करते हैं. 
                                             कहानी में जब कुछ न हो तो कैमरा मैन के काम की तरफ भी ध्यान नहीं जाता.
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है की अच्छे एक्टर्स भी एक लचर कथा, पटकथा और ख़राब निर्देशन में बनी फिल्म को अच्छा नहीं बना सकते , इसका उदहारण "फाइंडिंग फेनी" है. एक बेहद ख़राब फिल्म जिसमे पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह और डिंपल कपाडिया की वेस्ट होती हुई एक्टिंग को देख कर अफ़सोस होता है.

Monday 8 September 2014





प्रीत
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कैफ़े कॉफ़ी डे के खुशनुमा से माहौल में बैठने के लिए मेरी निगाहें कोई

खाली कुर्सी तलाश रही थी , कुछ ही सेकंड में निगाहों से कितना कुछ गुजर

गया, वो कोने वाली चेयर पर बैठा हुआ एक नौजवान जोड़ा , लड़की ने बड़ी

बेफिक्री से अपना बायाँ पैर सामने रखी टेबल पर रखा था और वो अपने साथी को

फोन में कुछ दिखा रही थी, दीवार से लगी हुई कुर्सियों पर कुछ महिलाएं

बैठी थी शायद किसी किटी की सदस्य थी या शौपिंग कर के लौट रही थी,

हंसते-खिलखिलाते , बातों में मशगूल लोगो से निगाह फिसलते हुए पीछे कोने

में कांच की दीवार से लगी हुई एक टेबल पर पड़ी,वो अकेली बैठी हुई अपने

आस-पास के शोर से कोसो दूर कप की गोलाई पर उंगलियाँ फिरा रही थी. लगा शायद किसी के इंतज़ार में वक़्त नाप रही है, कप की गोलाई पर उसकी आहिस्ता घूमती उँगलियों और उठती भाप को देखती रही, ऐसा ही तो होता है न , कुछ भी कर लो ज़िन्दगी का सिर हाथ ही नहीं आता , कुछ बातें , कुछ लम्हे हमेशा दो कदम आगे ही जा कर रुकते हैं।   उसके सामने की खाली कुर्सी आमंत्रण देती सी लगी. एक पल हिचकने के बाद मैंने

सोचा की पूछने में हर्ज़ ही क्या है , उसके साथी के आते ही मैं उठ जाउंगी

और एक कॉफ़ी पीने में वक़्त ही कितना लगता है. मन ही मन ये सब बुदबुदाते

हुए मैं उसकी तरफ बढ़ गई.

" मैं यहाँ बैठ सकती हूँ?" पास जाकर मैंने सपाट स्वर में कहा
टेबल पर कोहनी रखे हथेलियों पर ठुड्डी टिकाये उसने मेरी तरफ देखा , उसकी

गहरी आँखों और लम्बी पलकों को देख मैं दो सेकंड के लिए अवाक् रह गई, मुंह

से बोल नहीं फूटा. उसने भी आँखों से ही बैठने का इशारा कर दिया,  बैठते

हुए मैंने कहा -"जैसे ही आपके मित्र आयेंगे मैं उठ जाउंगी"

कॉफी का घूँट लेते हुए उसने कहा   "नहीं, नहीं आप आराम से बैठें , कोई नहीं आने वाला", उसके शब्दो में एक निश्चिन्तता थी जिसने मुझे थोड़ा सा असहज कर दिया। उसे पता था की कोई नहीं आने वाला फिर भी वो बार बार दरवाज़े की तरफ देख रही थी।   अपने बैग्स मैंने कुर्सी की बगल में ज़मीन पर रखे और बैठते हुए एक बार फिर उसकी तरफ देखा, उससे पूछने के लिए मन में ढेरों सवाल आ रहे थे , बात करने की जबरदस्त इच्छा हो रही थी, लेकिन उसकी चुप्पी उसके शब्दों से होती हुई टेबल तक पसरी हुई थी।   सिल्क रंग की साड़ी पर चौड़ा ऑरेंज कलर का बॉर्डर , पल्लू लापरवाही से काँधे पर डाला हुआ,गर्दन को छूता जूडा और कोई जेवर नहीं, बिंदी तक नहीं अलबत्ता एक कलाई में घड़ी जरुर थी. उसकी पतली नाज़ुक सी नाक में अगर एक लौंग होती तो ? और काली भौहों के बीच लाल बिंदी कितनी अच्छी लगती. उसकी हथेली उसके एक तरफ को झुके हुए सर का सहारा बनी हुई थी और उसकी निगाहें दरवाज़े पर कुछ तलाश रही थी। उसके मग  के बगल में पेपर नैपकिन से बनी नाव रखी थी , बाहर बारिश नहीं हो रही थी, फिर भी बारिश के पानी में तैरती नाव के ख्याल भर से मैं मुस्कुरा उठी।उसे सोच में गुम देख मैंने भी इयरफोन कान में लगा फोन ऑन कर लिया, अचानक बाँह पर रखे  एक स्पर्श ने मेरी आँखें ऊपर उठा दी,
"एक किस्सा सुनेंगी"? उसका स्वर सुन कर चौंक उठी मैं। पसरी हुई चुप्पियाँ ऐसे भी बोलती हैं? कुछ जवाब दे पाऊँ इस से पहले वो उठ गई , कॉफी ले कर आती हूँ का धीमा स्वर मुझे थमा कर।
कॉफी के मग  के ऊपर से झाँकती उसकी आँखें , नहीं उदास तो नहीं थी , मरी हुई थी वो आँखें। किस्सा सुन कर आपके मन में कोई सवाल आये तो पूछियेगा जरूर लेकिन जवाब की उम्मीद के बिना , उसने मुस्कराहट पर कॉफी का घूँट रखते  हुए  कहा।  जाने उसने मेरे चेहरे पर क्या देखा की हलके से हँस पड़ी वो , जहाँ उसकी हँसी खत्म होती थी वहां उसने एक साँस भरी और एक सवाल मैंने गले में ही गटक लिया। शायद हर किसी को किसी अजाने से कुछ बाँटना आसान लगता है।                                                                                                                                                              उसने बोलना शुरू किया और मैंने उन शब्दों के मौसम को महसूस करना। 
उस दिन ना तो बारिश हो रही थी और ना ही तेज़ धूप थी , तारीखें मुझे याद नहीं रहती और महिना कोई भी हो अक्टूबर या जून फर्क क्या पड़ता है. उस दिन का वो पल बेहद खूबसूरत हो सकता था अगर प्रीत की कैफियत होती ध्यान देने की. जब हम खुश होते हैं, हंसी से लबरेज़ तो मौसम भी आपके साथ चहक उठाता है, है न! उसने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे अपनी बात के लिए मेरी हामी चाहती हो।   उसके किस्से से ज्यादा दिलचस्पी मुझे उसमे हो गई थी. उसका धीमी आवाज़ में रुक-रुक कर सुनाना ऐसा लग रहा था जैसे वो मुझे नहीं बल्कि खुद को ही वो किस्सा सुना रही हो. कागज़ की नाव से खेलते हुए वो सोच में गुम कह रही थी, "बड़ा अजीब सा दिन था वो प्रीत के लिए , प्रीत ने सुब्बू को इसी सीसीडी में बुलाया था. देखो न मुझे तो ये भी नहीं पता की वो कहाँ बैठे थे, किस चेयर पर, उसने आस-पास निगाह दौडाते हुए कहा. लेकिन जहाँ भी बैठे थे वहां धूप का एक टुकड़ा प्रीत के चेहरे को एक अलग रंग दे रहा था.

सुब्बू एकटक प्रीत को देखता रहा," तो तुम ये कहना चाहती हो की तुम्हारे पास ३००० रुपये भी नहीं हैं?

"किसने कहा की नहीं हैं, हैं बिलकुल हैं लेकिन वो मेरे नहीं रोहन के हैं."प्रीत ने स्थिर मन और शांत स्वर में कहा .
"डोंट बी स्टुपिड यार , तुम्हारी शादी को सिर्फ एक साल हुआ है और तुम्हारा

ईगो आने लगा इस रिश्ते में ".




"नहीं, कोई ईगो विगो नहीं है और शादी को सिर्फ एक साल नहीं हुआ बल्कि एक

साल हुए अभी सिर्फ तीन ही दिन हुए हैं" मुस्कुराते हुए प्रीत ने कहा.




सुब्बू कभी-कभी चिढ जाता है प्रीत की किसी भी सीरियस बात को मजाक में

उड़ाने की इस आदत से.




"मैं सीरियस हूँ प्रीत"




"मैं भी" प्रीत ने बेपरवाही से दो लफ्ज़ उछाल दिए .




"रोहन कहाँ है?"




"दिल्ली गया हुआ है , कल आ जायेगा". प्रीत पेपर नैपकिन से नाव बनाने में व्यस्त थी




कुछ तो है जो बदल गया है लेकिन क्या सुब्बू उस बदलाव को महसूस तो कर रहा

था लेकिन समझ नहीं पा रहा था. तीन दिन पहले ही तो मिला था वो प्रीत से ,

उसकी एनिवर्सरी पार्टी में, केक काटती प्रीत, फूंक मार कैंडल बुझाती

प्रीत, खिलखिलाती प्रीत, एक अच्छे होस्ट की तरह सबके खाने-पीने की परवाह

करती प्रीत, और आज ? सुब्बू ने प्रीत की तरफ देखा , बेपरवाह दिखने की

कोशिश सी करती  दिख रही थी प्रीत  उसे आज।
हुआ क्या है ? कुछ बोलोगी ?
कुछ नहीं, सब ठीक है।
चुप हो आज बहुत.
नहीं तो
प्रीत की चुप ने परेशान कर दिया सुब्बू को , वो जानता था ज़िद्दी है प्रीत , अगर उसने सोच लिया है की नहीं बोलेगी तो ब्रम्हा भी उसे नहीं बुलवा सकते।  
 "अगर कोई प्रॉब्लम है तो मैं बात करू रोहन से?"
"थैंक्स, बट  नो थैंक्स, चलती हूँ,काफी देर हो गई है", अपना बैग उठाती हुई प्रीत खड़ी हो गई , सुब्बू हडबडा गया,अरे!" रुको तो सही, बैठो, बात तो करो"

"क्या बात करू सुब्बू, मुझे जो कहना था, कह दिया मैंने और कुछ है नहीं कहने को।  बिना वजह पूछे दे सकते हो तो दे दो"
सुब्बू देख रहा था प्रीत को , उसके आधे चेहरे पर पड़ती धूप ने उसकी आँखों

की रंगत बदल दी थी शायद, प्रीत की हमेशा की पनीली आखें क्यूँ आज सुब्बू को सूखी सी लग रही थी, या फिर उसे ही कुछ ग़लतफहमी हो रही है ,प्रीत की तरफ देखते हुए सुब्बू ने सोचा।
जानती हूँ तुम्हे मेरी फ़िक्र है लेकिन यकीन जानो सब ठीक है।
प्रीत को मुस्कुराते हुए सुब्बू देख रहा था , इस मुस्कराहट को वो भेद नहीं पायेगा , कितनी भी कोशिश कर ले प्रीत उसे कोई सिरा  नहीं पकड़ाने वाली।  अच्छी तरह जानता है वो प्रीत को




"चलो"




"कहाँ?"




"अब इस वक़्त मेरे पास इतना कैश तो है नहीं ए टी एम् से निकाल के देता हूँ"




पैसे लेते हुए प्रीत ने कहा- "याद रखना, मैं ये उधार ले रही हूँ, कब तक लौटा

पाउंगी नहीं पता लेकिन लौटाऊंगी जरुर".




"तुम भी हद्द करती हो यार , उधार की बात ही कहाँ से आई."




"नहीं सुब्बू अगर तुम वापस नहीं लोगे तो मुझे नहीं चाहिए."




प्रीत की गहरी खामोश आवाज़ सुन कर सुब्बू धीरे से " ठीक है" ही कह सका.

.सुब्बू से विदा ले नोटों को मुट्ठी में दबाये प्रीत ऑटो में बैठ गई,

सुब्बू चुप-चाप उसे जाता हुआ देखता रहा, उसे प्रीत की आदत पता है वो कभी

पलट कर नहीं देखती , कोई उसे विदा करने के लिए खड़ा है ये जानते हुए भी नहीं।

बंद मुट्ठी को सीने से लगाये प्रीत ईश्वर से प्रार्थना करना चाहती थी

लेकिन क्या बोले वो ईश्वर से , क्या चाहती है वो , प्रीत को कुछ समझ नहीं आ रहा था।  दरवाज़े का ताला खोलने से पहले प्रीत ठिठक गई, ये घर उसका ही है इस बात का यकीन खुद को दिलाना बहुत

जरुरी हो गया था।  गहरी साँस के साथ   एक बार मुट्ठी में दबे रुपयों की ओर देखा और

ताला खोल अन्दर आ गई. उसे कल की तैयारी करनी थी, कल रोहन आ रहा था.




*****

"उन रुपयों की क्या.....". उसकी ठंडी निगाहों ने मेरे शब्दों को तालू में

ही जमा दिया. हम दोनों को ही संभलने में दो पल का वक़्त लगा और फिर वो

मुझे खींच ले गई अपने शब्दों से से रोहन और प्रीत के घर में.




*****







"क्या बात है! गजब ढा रही हो आज तो" रोहन ने दरवाज़ा खुलते ही कहा.




आज प्रीत ने बहुत वक़्त दिया था रोहन की पसंद को, रोहन की पसंद की सुनहरे

किनारे वाली हल्की नीली साड़ी, खुले बाल , हाथ भर चूड़ियां, कमर में लटकता

बड़ा सा चाबी का गुच्छा, उसकी पसंद का श्रृंगार, रोहन की एक-एक पसंद का

ध्यान रखा था आज प्रीत ने .रोहन की तारीफ से मुस्कुरा उठी प्रीत .




"कैसा रहा तुम्हारा टूर , चाय लाऊं? हाथ मुंह धो लो , थक गए होगे न, कितनी सारी बातें

एक ही सांस में कह गई प्रीत , लगा पानी में दूर-दूर पड़े पत्थरों पर पैर

रख पार कर रही है .




"हाँ भई चाय तो पिला ही दो थक गया हूँ"




"अभी लाई"




" और सुनाओ क्या किया तुमने इन चार दिनों में"




"कुछ ख़ास नहीं , एक मिनट अभी आई" कहती हुई प्रीत तुरंत ही लौट भी आई।  चाय के प्याले के साथ प्रीत ने ३००० रुपये रोहन को पकडाते हुए कहा " ये लो मेरी तीन रातों की कमाई"




"मतलब क्या है तुम्हारा , क्या बोल रही हो तुम पता भी है तुम्हे" , अवाक रह गया रोहन। 




"सही सुना है तुमने , मेरी तीन रातों की कमाई" , प्रीत सपाट चेहरा लिए हुए कह रही थी।  लम्हा भर पहले की प्रीत रोहन को सदियों पुरानी बात लग रही थी।  प्रीत के आगे बढे हुए हाथ में रुपये थे , उन रुपयों से ज्यादा प्रीत का चेहरा रोहन को कंपकंपा रहा था।

"अगर ये मज़ाक है तो बहुत ही भद्दा मजाक है ये प्रीत" , रोहन ने गुस्सा करने की भरसक कोशिश की लेकिन अजाने डर ने उसे पकड़ लिया।

"नहीं, कोई मजाक नहीं , तुमने ही तो उस दिन कहा था" प्रीत का स्वर अभी भी शांत था .




"क्या कहा था , कब कहा था , कहना क्या चाहती हो तुम"




"एनिवर्सरी वाली रात तुमने ही तो कहा था की मैं बिस्तर में ऐसी हूँ की एक

रात के पांच रुपये भी नहीं कमा सकती"




"वो तो मैंने यूँ ही मजाक में ..... " स्तब्ध बैठा रह गया रोहन। अपनी आवाज़ रोहन खुद ही नहीं पहचान पा रहा था।

प्रीत ने चाय के बिखरे कप के टुकड़े समेटे और रोहन को अनसुना कर पलट गई .

किचन तक जाते हुए उसके अधरों पर एक नन्ही सी भीगी मुस्कान थी.




मैं भी तो स्तब्ध बैठी रह गई थी, ये किस्सा था? कॉफ़ी की गर्माहट भी

हथेलियों में जमी बर्फ पिघला नहीं पा रही थी .

वो मुस्कुरा उठी," चलती हूँ" उसने खड़े होते हुए कहा




"तो क्या इसीलिए अब आप कोई श्रृंगार कोई जेवर नहीं पहनती" , पूछते ही लगा

क्या बचकाना सवाल था, कहीं मैं उसके ज़ख्म तो नहीं कुरेद रही थी .




वो हँस पड़ी, कैसी विलक्षण हंसी थी, अगर गौरा पन्त ने सुनी होती वो हंसी तो शायद उन्हें भी सोचना पड़ जाता उस हंसी को चित्रित करने में. कुछ कुछ उगते सूरज में अध्यात्म में डूबी चिड़िया की आवाज़ जैसा? नहीं, कुछ और ही था उस हंसी में. जिन्होंने गंगा किनारे भोर में पंडित शिव कुमार शर्मा का

संतूर और हरी प्रसाद चौरसिया जी की बांसुरी सामने बैठ के सुनी है वही समझ

सकते हैं उस हँसी को .




अरे! नहीं, नहीं मेरे महबूब का कहना है की मेरी खूबसूरती को जेवरों की जरुरत

नहीं", हँसी के बीच ही उसने कहा.




"महबूब ? मतलब ये घटना ...." मेरा सवाल उसकी साँस भर- भर ली जाती हुई हँसी में अधूरा ही रह गया.




"मतलब का तो कुछ नहीं पता" कहते हुए रहस्यमई मुस्कान ओढ़े वो चली गई और मैं बस उसे

जाता देखती रही, जानती थी वो मुड कर नहीं देखेगी , बस जानती थी, कैसे

जानती थी पता नहीं.

*******




उस सड़क पर कम ही जाना होता है लेकिन जब भी कैफ़े कॉफ़ी डे के आगे से निकलती

हूँ तो अन्दर झाँकने का लोभ संवरण नहीं कर पाती, शायद वो मुझे एक बार फिर

मिल जाए और अबकी बार मिली तो उसका नाम जरुर पूछूंगी.

























( painting Australian artist Loui Jover की है)