Saturday 28 June 2014

पुरातत्ववेत्ताओं  के औज़ार लिए ,
वो  सुकून और धीरज से
उधेड़ती है धरती की एक एक परत
उसे मिलती हैं
चिड़िया की एक आवाज़
आधा पीला-हरा एक पत्ता
जिसे किसी ने सहेज  दिया था कोरा ही
और कुछ कुफ्र की बातें
कुछ  दिल से लगाने लायक झूठ
 बेरंग से सच भी मिले थे कुछ परतों में उंघते हुए
उन्हें फूंक मार सहेजती है एक किनारे ,
लौटने के रास्तों से पीठ फेरे
आँखें नर्म रखती है
हथेलियों की ओट में
पहुँच जाती है जमीन के आखिरी कोने तक
उस एक शब्द की खोज में ,

और

बस उसे वो एक लफ्ज़ ही नहीं मिलता
जो पड़ा रहता है बेमानी सा
तुम्हारे कुरते की बाई जेब में .

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