Friday 20 June 2014

मन के ये अहसास जो शब्दों में ढल  कविता का रूप नहीं ले पाते फिर भी अधूरे से नहीं लगते



नीम के झड़ते हुए फूलों के दिन
सोती-जागती अबूझी
ख्वाहिशों के साथ
वक़्त की फांक पर
मिलना कहाँ हो पाता है


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 पूरी हो चुकने के बाद भी अधूरी रह जाने वाली एक ख्वाहिश

तुम्हारा हाथ थामे चलना सिर्फ चलना




 चाहती हूँ, मेरे हर शब्द में से तुम्हारी महक आये, काश, मेरा सारा चाहा , मेरा अनचाहा हो जाए



 रख छोड़े हैं कुछ अनखुले से शब्द
बंद मुट्ठी में,
आँखें बंद करू तो
फूंक मार
इन्द्रधनुष फैला दो हथेलियों पर



लेकिन तुम भी क्या करोगे ------ तुम तुम हो।



 हथेलियों पर उगी हैं उम्मीदें

तुम्हारे शहर से बारिशों का वादा था.




 मन इतना खाली नहीं होता अगर ज़िन्दगी जीने की ख्वाहिश तराजू में रखी नहीं मिलती...



 जिसे अवचेतन में याद किया वही याद लौट लौट आई चेतन में
लेकिन
एकाकी यात्रा के यात्री ने नहीं माँगा कोई हिसाब याद और आवाज़ से





उँगली पकड़ उसने पहला जो शब्द महसूस करना सिखाया वो था --तन्हाई

अब ?





 और कुछ नहीं
प्रेम में होने के अहसास से प्रेम है मुझे





 गिरते , सूखे पत्तो पर श्रांत पडा
यकीन भी बेलिबास हो चला है

तुम्हारे शब्द चाहिए

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