Thursday 15 May 2014

मैंने सोचा दुःख
 और
तुम बन गए
 हर वो ज़ख्म
जो
उग सकता था मेरे बदन पर
 मैंने कहा सुख
 और
तुम ढल गए खुश्बुओं और स्वरों में
सातों जल और एक कम्पन में
तुम बंधे हो मुझमे
 मैं ढली हूँ तुममे

1 comment:

  1. तुम बंधे हो मुझमे
    मैं ढली हूँ तुममे
    sundarr sach

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