Thursday 3 April 2014

कोई रुक कर मुड़ता भी नहीं
किसी आवाज़ के इंतज़ार में,
उकताए पाँव खुरच देते हैं
लम्बे रास्तों के निशान,
जा चुकने के बाद भी ठहर जाता है बहुत कुछ
होठों के बंद में ,
ज़मीन को ज़मीन ही निगल जाती है
और
बरस हार जाते हैं बिना उम्र की दूरियों से ,
इन अंतहीन रस्तों से बुना,
अधिक सा तुम्हारा
और
कुछ कम सा मेरा
शहर ,
बाट जोहता खो गया

1 comment:

  1. सोचा की बेहतरीन पंक्तियाँ चुन के तारीफ करून ... मगर पूरी नज़्म ही शानदार है ...आपने लफ्ज़ दिए है अपने एहसास को ... दिल छु लेने वाली रचना ...

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