Monday 17 March 2014

जून के हिस्से वाला एक भीगा दिन ,
और
जग की रीत वाले
सारे रंग चुक गए ,
अब बची है
याद ,
जो
कभी दवा सी निगली गई ,
कभी थपकी और
कभी सहेजी गई ,...
वक़्त पर तोड़ी भी गई ,
मुखर होते मौन से
हरी होती ,
बाहर आँगन में
बोई
तुलसी के पौधे सी

एक याद

2 comments:

  1. बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में

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  2. आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी......आपको फॉलो कर रहा हूँ |

    कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-


    संजय भास्‍कर
    शब्दों की मुस्कुराहट
    http://sanjaybhaskar.blogspot.in

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