Monday 17 March 2014

जून के हिस्से वाला एक भीगा दिन ,
और
जग की रीत वाले
सारे रंग चुक गए ,
अब बची है
याद ,
जो
कभी दवा सी निगली गई ,
कभी थपकी और
कभी सहेजी गई ,...
वक़्त पर तोड़ी भी गई ,
मुखर होते मौन से
हरी होती ,
बाहर आँगन में
बोई
तुलसी के पौधे सी

एक याद

Wednesday 12 March 2014

अकथ कविता -कहानी की जमीन पर
उग आई थी ,
जो
एक सीधी और सच्ची बात ,
बहुत छोटे से पल के भी सौवें हिस्से में
तुम्हारी आँखों से गुजरते हुए
लिपट कर रह गई जो   मेरी उँगलियों से
कुछ मुड़ सी गई है ,

आधी सी चुप्पी में सुनने से रीती रह गई
वो सारी  लम्बी दोपहरें
ठहर गई हैं किन्ही दो टुकड़ा आँखों पे ,

किसी बेपहर के दिन
शब्दों की कलाई पर
नीली स्याही से  गुदे
एक अक्षर के इतिहास को
सीधा कर दो

Thursday 6 March 2014

छत के किसी कोने में मुंडेर से लगी हुई ,
कभी किसी तिराहे पर कबूतरों को दाना चुगाती ,
रंग खोती  हुई इस सांझ पे उतर आये रात उससे पहले
लिखनी है अपनी आखिरी चिट्ठी तुम्हे इस शाम
जिसमे होगी महक मेरे लहू की
अक्षरों को ले बैठी होंगी साँसे मेरी
तुम बीन लेना मेरी आवाज़
और
भर लेना  अपनी खाली जेबें
मैं रख लूंगी तेरी याद की एक सिगड़ी
और
हर मौसम , इस शाम
लिखती रहूंगी चिट्ठियां
 उनके
आखिरी होने तक
इनको (मतलब हमारे पतिदेव को , ) गए हुए तीन दिन हो गए थे , वैसे कोई ख़ास मोहब्बत रह नहीं गई थी फिर भी पता नहीं क्यूँ रो-रो के हमारा बुरा हाल था , आधी रात बीतने को आई थी और कम्बखत नीद का अता -पता नहीं था  सोचा एक बार जरा  ही देख आये कि   इनकी फोटो के आगे रखा दिया  जल भी रहा है या नहीं , आदतन घुटनों पे हाथ रखे ,  हाय-हाय राम जी करते हुए उठे फिर ख्याल आया अब तो कोई है ही नहीं हमारी इन कराहटों को सुनने वाला सो चुपचाप खड़े हुए और चल दिए  , भई जब तक कोई देखने वाला ना हो रोने में मज़ा नहीं आता , और हमारी अभी ऐसी कोई ख़ास उम्र भी नहीं हुई की हमें कोई दर्द -शर्द हो , उम्र के मामले में वैसे भी हमारी याददाश्त निगोड़ी झट कुएं में छलांग लगा लेती है , पता नहीं क्या उम्र है हमारी , वो पड़ोस के पंचू जी का बेटा अक्सर कहा करता है मौसी बुड्ढी  हो गई हो क्योंकि हम कहना कुछ शुरू करते हैं और पहुँच कंही और जाते हैं , खैर हम  पलंग से उठ कर दो-चार कदम ही चले थे की लगा कोई सो रहा है हमारे बिस्तर  पर , हमारी तो ऐसी घिग्घी बंधी की बस , बड़ी कोशिश की कि हनुमान चालीसा का एक लफ्ज़ ही याद आ जाए लेकिन इनकी दुआ से इश्वर हमपे ऐसी मेहरबानी क्यूँ करने लगे , धीरे-धीरे पलटे , पलटते ही जो देखा तो हमारी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे , हम खड़े भी थे और सामने पलंग पर सो भी रहे थे , क्या माज़रा था ? हम दो कैसे हो रहे थे ,  क्या हम मर गए थे ? अगर मर गए थे तो ख़ुशी की बात कि चलो इनसे मिल लेंगे , इनसे मिलने की ख़ुशी में एक परेशानी ने टांग अड़ा दी कि हम इनको ढूँढें कहाँ ---जन्नत में या दोजख में ? ठुड्डी पे हाथ रखे इस सवाल का हल सोच ही रहे थे कि हमें लगा हम अपने कमरे की जगह किसी और ही जगह पर हैं , इस ठंडी अजीब सी जगह पर हैरान परेशान होते उससे पहले हमें "ये" दिख गए , " अजी सुनते हो की नहीं " की आवाज़ लगाते हुए हम इनके पीछे लपके , इनका चेहरा देख के लगा भूत भी भूत देख के डरता है
"क्यूँ जी डर गए हमें देख के ?"
" डरे मेरे दुश्मन , हमें तो बस ये ख्याल आया की अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे"
" हम सब समझ रहे हैं की आप कहना क्या चाहते हैं "
" बड़ी लायक निकली आप , हमें भी बता दीजिये की हम क्या कहना चाहते हैं "
"हम तो शुरू से लायक हैं , आपके माँ-बाप और आपके सिवा सबको पता है "
"अब हमारे माँ-बाप कहाँ से आ गए बीच में , भई आप हमसे बात कीजिये न "
"आप ही से बात कर रहे हैं ,लेकिन आप सुने तब ना "
"ये लीजिये हमने कब नहीं सुनी आपकी , अब ये झूठा इलज़ाम ना लगाइए हम पर "
"हाँ , बस सुनी ही सुनी मानी तो कभी नहीं ना "
"बेगम आप बात पलट रही हैं , बात सुनने की हुई थी"
हमारी ही मति मारी गई थी जो आपके पीछे चले आये "
" सच में बेगम  आप आई ही क्यूँ , बच्चों का कुछ तो ख्याल किया होता "
"बच्चे हो गए सारे अपने घर के , और हमारे जो मर्ज़ी हम वही करेंगे " ये कहते हुए हम पलट कर चलने को हुए की किसी चीज़ से ठोकर खा कर गिर पड़े  , आँखों के आगे अँधेरा सा आया , सहारे के लिए जो सामने था उसे ही पकड़ लिया , देखा तो  दो डॉक्टर हमारे ऊपर झुके हुए हैं और ना जाने कितने तार  हमारे सीने से लगा रखे हैं , हमारी आँख खुलती देख डॉक्टर ने कहा थैंक गॉड आप बच गई माताजी .
                                                     हम हॉस्पिटल पहुंचे कैसे ?  , हमें तो सिर्फ ये याद था की हम इनसे मिल आये और हमारे बीच आज भी उतना ही प्यार बरकरार है .बच्चे खुश थे की हम जा कर वापस लौट आये और हम उनकी ख़ुशी में खुश थे .