Thursday 27 February 2014

जीते हुए होते हैं आधे लम्हे
गीलापन उतरता हुआ आँखों से रह जाता है आधा ,
इस देह में हूँ मैं आधी ,
अघोरियों की खामोश गहरी आवाजों के बीच
अति पवित्र कुंड में विचरते ,
आधा रह जाने को ,
अभिशप्त है प्रेम
नैनो के सामान ही भरी अंजुरी '

रिसती है कतरा कतरा

पपड़ाए होंठों को
अब
आरजू नहीं रही इसकी
बैचैन हो उठते हैं सारे शब्द एक परछाई की ओट में

"तुम "पहन लो एक चेहरा ,

तो

सूकून भी बैठे सांस भर हो कर
बढती हुई गेंहू की बालियों के बीच ,
 जरुरी है
 नीले से लाल रंग के कई उतार-चढ़ाव लिए फूल को उखाड़ फेंकना
जरुरी है
सपाट पगडण्डी को बचाने के लिए
धागेदार जड़ो के साथ
चिरस्थाई
उग आये
 प्रेम को नोच फेंकना
 
 

Tuesday 18 February 2014

उतरता है अँधा कुआँ
तलाशने
जाने चेहरे की अनसुनी में
गुम हुई एक आवाज़ को
बैठी रह जाती हैं
उजाड़ मुंडेर पर
थिर दो आँखें
नहीं करती फ़रियाद
इस बार किसी
कागा से
ढाई आखर के ज्ञान-अज्ञान
और
दावों से परे
ठिठक सी जाती है
हंसती- खिलखिलाती हंसी
ये सोच कर ,
हो कर भी क्यों नहीं हो तुम
इंतज़ार की वजहें नहीं हुआ करती
और न ही हासिल





 लौटते कदम अनदेखा कर देते हैं
पीछे दौड़ती आवाजों को



हम अच्छे दोस्त हैं , और क्या चाहिए?
.............................
और क्या चाहिए होगा ? और क्या चाहना होनी चाहिए
पास आना संभव नहीं न सही , और दूर मत जाओ
चलो , साथ चलती हूँ चौराहे तक
जाते हुए लग लेना गले
बासी उल्हानो के ,
रख देना मिठास
हर एक कड़वे सच में
ट्रेन के नीचे रख ,
मिलाये हुए सिक्के
और
बांह पर से उतारा हुआ
एक गहरा दांत का निशान
सिरहाने रख ,
सुनती है जो
जमीन से कान लगाये ,
लौटती पदचापों को ,

पार कर जाती है ,
नंगे पाँव ,
कई सारे तीखे जंगल
लिखती है जब चिट्ठियाँ
हाथ में लिए
अधजला , अधूरा मफलर ,

दिख जाती है वो
अक्सर ,
उस शहर के उस दरवाज़े के पार
फैली हुई लिखाई के बीच ,
जागती हुई सी

Sunday 2 February 2014



दिन रात के फेर से परे उपजे मन में ,




अपने लिए हाँ सुन कर




मन में ही पनपे भी ,




तुम्हारी पीठ से उतरती धूप में ,




उम्रदराज़ हो गए मन ही में ,


होंठों पर जमे एक शब्द को सुनने की

चाह बिना

जाती सर्दियों में

मेरे सारे सपने

मन ही मन

मुझसे

नाराज़ भी हो गए