Tuesday 17 December 2013

कुछ मुस्कुराता , कुछ सकुचाता ,
सुफेद से लिबास में ,
अभी कल की ही तो बात है
वह मेरे साथ था
मगर
जैसे चलते-चलते
कहीं रुक गया
या
बेबस हो ठहर गया
क्यों बाँहें फैलाए आवाज़ देता है ...
सच-झूठ की नीम नींद से परे
बढ़कर साथ क्यों ना आ पाता है
शायद
प्रारब्ध से बंधा है कहीं
वह मेरा बचपन
वह मेरा महबूब .

1 comment:

  1. सुन्दर...

    कहीं राजपथ कहीं सँकरी पगडंडियां है
    कुछ दूर तक चलता
    कुछ क्षण में खो जाता है
    पास जो है उसके साथ हो हम
    तो खोया हुआ भी पास आ जाता है

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