Saturday 23 November 2013

हिलती-डुलती नींद से अचानक ही आँख खुल गई शायद ट्रेन के एक झटके से रुकने
की वजह से ,
सूरज निकला नहीं था और हवा में ठंडक भी थी , ट्रेन की खिड़की से रौशनी की
बाट जोहता  बाहर का
नज़ारा खूबसूरत था ,उच्छवास ने भी जानना चाहा  की  ट्रेन
किस जगह रुकी है , क्षितिज में हलकी सी रोशनी ढूँढने की कोशिश की लेकिन
अँधेरा था , हल्का सा अँधेरा , इतना हल्का की लगा सुबह बस रास्ते में ही
कहीं है , आँख खुलते ही उठना जरुरी लगता है लेकिन होता तो नहीं जरुरी,

उठते ही तो स्मृतियाँ परजौट माँगने लगती हैं , ऊसर मन चुका नहीं पाता

ट्रेन कहीं बीच में रुकी थी , किन्ही दो शहरों के बीच , किसी एक शहर के
ज्यादा करीब ,  पीछे छूट चुके
शहर की याद आते ही मन कोल्ड कॉफ़ी की महक से भर उठा और बेसाख्ता होठों से
फिसल पड़ा एक शब्द - कोल्ड कॉफ़ी , मन भी ऐसे ही समय चौपड़  बिछा बैठ जाता
है और कर लेता है सारी कौडियाँ अपनी तरफ , नाम की
याद की जगह किसी एक पल को सामने ला खड़ा करता है , और आ जाती है बहुत सारे
लम्हों के साथ मुस्कराहट और नमी एक साथ , सहयात्री ने कहा इतनी सुबह और
ठण्ड में कोल्ड कॉफ़ी ? क्या सहेजा हुआ नाम भी बेध्यानी में ऐसे ही निकलता
है , मुस्कुराते हुए एक चाय वाला ढूंढ निकाला , उसने कांच के गिलास में
चाय डाल मेरी तरफ बढाई , इनकार में सर हिलाते हुए मैंने कुल्हड़ में चाय
मांगी , हैरानी से मेरी तरफ देखते हुए उसने कंधे उचकाये और कुल्हड़ में
चाय दे दी ,  कन्धों पे हमेशा ही पुरानापन पसरा रहता है , हथेलियों
से कुल्हड़ थाम कोल्ड कॉफ़ी की गर्माहट के साथ मैंने अदरक वाली चाय की एक
घूँट भरी और पीछे रह गए शहर को पीते हुए आगे आने वाले अपने शहर की भीड़
में मन को खो दिया

Thursday 14 November 2013

एक थी मैं
जो
बेख़ौफ़ मुस्कुराती
और
एक थी मैं
जो
खोज में खुशियों की
भीड़ में खो जाती
एक थी मैं
जो
दीवारों से बेखबर
हर घर में जाती
और
एक थी मैं
जो
अपने घर के वजूद के सपने
को
तरस जाती।

Wednesday 13 November 2013

खतों से , तस्वीरों से  निकलती एक पुरानी हंसी कितना हल्का कर देती है हमें ,  और वहीं जमीन पर पाँव फैलाए सामान के ढेर के

बीच कहकहों को तलाशने लग जाते हैं , सर्दी ,गर्मी ,बरसात  हर  मौसम इनके बिना ना होने जैसा लगता है , चाय  का प्याला

 हथेलियों में लो तो जब तक वो यादों से लिपटा  न हो तो उसकी गरमाई का अहसास हथेलियों से होकर सीने में उतरता ही नहीं।
                                                              कई बार छत पर  चाय का प्याला  हाथ में लेते ही लगता
है  किसी  ने पीछे से आ कर  काँधों  पे शाल डाल  दी ,हम हँस  कर पीछे मुड़ पड़ते हैं और अपनी ही साँसों की गरमाई से आँखों में

 धुआँ  सा छा  जाता है ,सामने की कुर्सी कभी खाली लगी ही नही,  वो मुस्कुराहट ,वो  गुनगुनाहट रूह में अभी तक महफूज़ है.


                              
                                                                                          
                                                                                                   सुना था सदियाँ गुजर जाती हैं और लम्हे सारी उम्र  खुद में कैद अक्सर पाजेब के घुंघरुओं की तरह छन  से बज उठते हैं ,   अब  तो आदत सी हो गई है,  कैसे हर छोटी - छोटी, गैर - मामूली  सी चीज़ भी आपकी ज़िन्दगी का हिस्सा बन जाती है ,नींबू  हाथ में लेते ही आवाज़ सी आती है --------भई नींबू -पानी पिला दो और सुनो जरा  नमकीन ही बनाना शक्कर ज्यादा ना डालना ,बड़ा मन करता है चिलचिलाती धूप  में उस शहर के उस दरवाज़े पे दस्तक दे के पूछने का तुम अब भी उतना ही नमकीन नींबू -पानी पीते हो या ये पसंद भी बदल गई है . पता नहीं कोई मुझसे रूठ गया या मैं ही सबसे रूठ गई ,ये रूठना-मनाना कब अबोला हो गया ध्यान ही नहीं।

Thursday 7 November 2013

उन्ही चिट्ठियों से फिर गुज़रना
  सीधी सड़क पे
पीछे रह गए मोड़
पर ठिठकना

मुस्कराहट शैतानी भरी
छू आती है
एक
शांत स्मित
उलझा जाती हैं पैरों को
बेसबब बातें
ललचा उठती हूँ
तुम्हे गुनने को !!

Wednesday 6 November 2013

एक धसका सा उभरता है सीने में,
सर पर थपक की इक्षा लिए हुए,
अटकी पड़ी है एक हिचकी
आने और
नाम के साथ गुज़र जाने की
प्रतीक्षा में ,
घुप्प अँधेरे की आदी उंगलियाँ
निकाल लाती हैं संदूकची
रख तो गए हो
परिभाषा से बिछड़ा
असीमित स्नेह !!

Tuesday 5 November 2013

द्वार वार्ता के बाद
लगती हैं गले
मुड़ती भी हैं
लेकिन
सीख नहीं पाती
लेना विदा
स्मृतियाँ

Saturday 2 November 2013

शून्य से नीचे तापमान में बचे रहने के लिए
            करती है धूप की तरफ चेहरा
                     गिरते हैं उल्का पिंड
     जलते हुए चेहरे के साथ लेती हैं पींगे ,

       ख्वाबों में भी नहीं आते
         अब
 हरसिंगार के फूल