Thursday 24 October 2013

उसे मछलियों  को उस कांच के गोल बर्तन में देखना बहुत पसन्द था ,कैसे मुंह खोले इधर से उधर दौड़ती रहती है ,सुनहरी मछली की  सारी दुनिया ही वही है वो छोटा सा गोला , उसका मन करता छू ले , कभी छुआ नहीं उसने , वो शाम होने के बाद और रात होने से पहले के जैसे रंग वाले चुप से  कुरते  को  उठा आईने के सामने अपना पेट देखने लगी -- अगर इसमें मछलियाँ हो तो ?, तो  वो उन्हें महसूस कर पाएगी . एक सच की मकड़ी ने कितने सारे झूठ  के जाले बुन  दिए उसके चेहरे के इर्द-गिर्द , कहते हैं , कौन कहता है पता नहीं उसने तो सुना था , की जहाँ  मकड़ी चल जाती है वहां फफोले पड़  जाते हैं , लेकिन उसे  फफोले दिखने की बजाए महसूस होते थे , सफ़ेद आँखों से  उसने फिर से पेट  को  देखते हुए सोचा  अगर मछलियाँ होती तो इधर से उधर दौड़ती ,सोच में वो मुस्कुराने लगी , देखा उसका पति दरवाज़े पे खड़ा देख रहा था , कुरता हाथों से छूट खुद-ब-खुद नीचे हो गया , आईने के सामने से हट कर वो उसके बगल से हो कर बाहर  जाने लगी .
                                  बीमार हो ?
                       ----     नहीं !
        मैं तुमसे कुछ पूछ रहा हूँ बोलती क्यों नही
हैरान कर देती है ये बात उसे की किसी को उसकी आवाज़ सुनाई   नहीं देती ,अपना कलेजा रख के बोले फिर भी  किसी के कानो  में   कुछ होता ही  नहीं , सर हिला कर  उसने पति को मना का इशारा किया ,अक्सर वो अचकचा जाती है इस ख्याल से की उसकी तरफ देखने वाले उसकी  आवाज़ नहीं सुन पाते , बाहर निकलते हुए उसने इस ख्याल को दरवाजे के पीछे सरका दिया ,ऐसे ख्यालों को रखने  के लिए उसे ये सबसे महफूज़ जगह लगती है , अब उसे अपनी आवाज़ की फिकर के साथ साथ और तरह की फिकर भी  होने लगी , पता नहीं उसे आंसू  भी  मिले   हैं या नहीं ,सोते में तो अक्सर रो लेती है फिर उसने आंसू देखा क्यूँ नहीं ,वो लुढ़कते हुए आंसुओं को देखना चाहती थी , अपने खाली  पोरों को देखती -अगर इस्पे आंसू धरा होता तो कैसा दिखता ,  सुना था उसने आँखों के कोनो पे आंसुओं की थैली होती है , बहुत ढूँढा उसने वहां उसे सफेदी के सिवा कुछ मिला ही नहीं , आँखें मिचमिचा कर  बहुत कोशिश की उसने आंसुओं को देखने की  फिर उकता कर वो सोने चली गई . लेटने पर उसे सांस नहीं आती , पहले तो ऐसा  नहीं होता था , सीने पर रखा पत्थर हटाने की कोशिश की , नहीं हटा तो उठ कर छोटी सी खिड़की से चेहरा  बाहर निकाल खड़ी  हो गई , कई बार उसे कोफ़्त होती खिड़की के छोटे होने से और उस छोटी सी खिड़की को और छोटा करते उसमे लगे हुए सरियों से ,खिड़की से उसने उस औरत को  जाते हुए देखा . सारे ख्याल ,  देखे-अनदेखे ,सुने - अनसुने  सब उस औरत के पीछे चल दिए .
                                                         दिन निकलते ही उसे अपना सबसे जरुरी काम याद हो आया , उस औरत से मिलना था उसे . उसे लगा था की उस औरत के घर वाले रस्ते अजीब से होंगे  , पता नहीं कैसे लेकिन कुछ अजीब  ,कुछ भी तो अलग सा नहीं था ,वैसे ही कुछ हरे कुछ कम हरे से पेड़ थे , वैसे ही धूल  बिखरी   हुई थी जो उसके पैरो से उडती हुई कपड़ो पे आ रही थी , आम रस्तों से कुछ भी तो अलग नहीं था इस रास्ते में , चलते हुए उसकी सोच उससे आगे चल रही थी , सारे रस्ते तो बिलकुल वैसे ही थे बाकी हर रस्ते जैसे .चिलचिलाती धूप महसूस नहीं हुई ,  वो उस औरत के सामने  खड़ी  हो गई चुपचाप . मोटी-मोटी काजल से काली आँखें , मुंह में पान था शायद  या नहीं पता नहीं लेकिन हंसी जरुर गुलकंद सी मीठी और पान सी लाल थी.
                           कुछ चाहिए ? पूछा उस औरत ने 
दोनों ही हैरान थी एक दूसरे के सामने  खड़ी हो कर
                          कुछ नहीं !
एक हैरानी ये भी थी की उस औरत ने धीमे से बोले गए शब्द ही नहीं उसकी आवाज़ भी सुन ली थी
सच है ! ऐसा कुछ नहीं जो सिर्फ एक का हो और दूसरे को दिया जा सके ,सब कुछ तो साझा है . मेरे पास जो आता है वो तुम्हारे घर के रास्ते को यहाँ इस पेड़ पे टांग देता है और लौटते हुए जेब में डाल चल देता है .
उसने आँख भर देखा उस औरत को , वो औरत स्वाभिमान की चादर लपेटे खड़ी थी , वो चुपचाप अपने सात कदम ले कर वापस लौट आई , वापस  लौटते हुए दरवाज़े पर उसे लगा जैसे उसके पेट में सुनहरी मछलियों की  जगह  पिराहना आ गई हैं , उसे लगा  ये  पिराहना उसकी सोच को कुतर डालेंगी , उसने आसमान की तरफ देखा , बरसने वाला था , अब उसे भीगना  अच्छा नहीं लगता , बारिश  के समय वो खिड़की से  चेहरा बाहर निकालने की  कोशिश भी नहीं करती , बूंदों के मिटटी में जज्ब होने से पहले याद करती है वो बारिशों के साथ आये हुए गैर -इरादतन ख्वाबों की   , बाढ़ में  डूबने से पहले और लकीरों में अकाल पड़ने से पहले ,  उसने कुछ बालियाँ तोड़ कर दरवाज़े के पास ही एक मिटटी के बर्तन में  सजा कर रख  दी हैं .
                                                                                दिन के एक हिस्से को उसने इंतज़ार के नाम सौपा हुआ है , बे-नागा  वो देहरी पे खड़ी हो आसरा देखती है ,  पता नहीं किसका , किसी की  आहट  का या किसी की लिखावट का , उस दिन के इंतज़ार का हिस्सा ख़तम कर पलटने से पहले ही कुछ पीले से पन्ने एक सादे से लिफाफे में उसके हाथों में  रख गया कोई , अचरज हुआ की न तो भेजने वाले का नाम है और ना ही पाने वाले का कोई पता , फिर भी उसे पता था , एक बिना देह की आवाज़ से उसे पता था की ये सारे पन्ने उसके लिए लिखे गए हैं , ये एक आवाज़ हमेशा से उसके साथ थी , बारिशों के पहले भी , बाढ़ से बहुत पहले और फसलों के बर्बाद होने से  बहुत-बहुत पहले से , आज खतम हुआ था इंतज़ार उसका ? , तो फिर सर क्यूँ दुखने लगा था उसका , आँखों का सफ़ेद रंग सुरमई क्यूँ नहीं हुआ ? , उसने सात कदमो को  अपने चेहरे पे फैलाया और आँचल में उन कदमो की गाँठ लगाते  हुए एक हाथ से दरवाज़ा बंद कर लिया .














































































                                                          
















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