Thursday 10 October 2013

सोचती  हूँ  खूब- खूब   पढ़ना  जरुरी  है  जिससे  बोलना  आ  जाए ,  पढ़ती  हूँ  तो  शब्द  गहरे  पैठ  जाते  हैं  और  मैं  मौन  से  थोडा  और  सट  कर   बैठ  जाती  हूँ  . चाहती हूँ   मौन   से  भाग  कर  शब्द  हो  जाऊं  लेकिन  चाहने  से  क्या  होता  है  न  , अपने  शब्दों  को  काट - छांट  कर  और  छोटा  कर  देती  हूँ ,काश  सामने  वाला  बित्ते  भर  में  समझ  ले और जवाब  दे  दे  बिना  सवालों  के  . जैसे  नानी  चिट्ठी  में  लिखा  करती  थी  माँ को  "कम  लिखे  को  ज्यादा  समझना " , कहते  हैं  शब्द  हमेशा  के  लिए टंगे  रह  जाते  हैं  हवा  में ,मरते  नहीं  कभी  , और  उन  टंगे  हुए  शब्दों  से  ख़ज़र के  रस्तों  को , कच्चे  घड़े  को  लिए बैठी  उस लड़की  की कहानियों  को  और उन सात घोड़ो  को  कष्ट  होता  है  . और ये  कष्ट  मेरी  आवाज़  पे  बंद मार  उसे  आबनूसी  कर  देता  है  और  मैं काफी  सीखाने  के  बाद  भी  , कोशिशों  को  किनारे  रख  मौनभाषी   होना स्वीकार  लेती  हूँ  .

2 comments:

  1. मौन रहना भी एक कला हैं और आजकल लोग हर बात पर कहते हैं चुप रहो चुप रहा करो घुटन को कोई समझता ही नही ...उम्दा भावाभिव्यक्ति


    आपका ब्लॉग उम्दा हैं कभी नयी पोस्ट लिखे तो इनबॉक्स सूचित करे और यह word वेरिफिकशन हटा दे कमेंट में दिक्कत लगती हैं ......... और आपको ब्लॉग पर कहा ज्वाइन करे उसका आप्शन भी नही हैं

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  2. shukriya ,aapne jo kaha hai main use sahi karne ki koshish karti hoon

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