Saturday 7 September 2013





ऊँह  बड़ी  देर   हो  गई  एक  तरफ  मुँह  करके  बैठे  हुए , कम्बखत  कितने  तो  उधड़े   कपडे  सिये   जाएँ  और  कितने  दिनों   तक  की  सब्जी  काटी  जाए  ,  कनखियों  से  देखते - देखते  आँखे  ही तिरछी  हो गई  शुक्र  की  गर्दन   अभी  तक  सीधी   है , महसूस  तो ऐसा  हो  रहा  है  की कुछ  पलो  से नहीं  जन्मो  से  यंही  चौकड़ी मारे  बैठे हैं  और   कोई   हमें  मनाने  आया  ही  नहीं ,  ये रूठना  मनाना  भी  ऐसा होता  है  जैसे  एक दाँत   से  कमरख   काटा  जा  रहा  हो  और   दूसरी  तरफ  गुड़   की  डली   ज़बान  पे  पिघल  रही  हो  .
                                         
                                                            बालों   में  चाँदी   जिस  हिसाब  से  दुगुनि - चौगुनि   होती  जा  रही  है  उसी  हिसाब  से  हमारा  ये  शौक  भी  बढ़ता  जा रहा  है  हर  लड़ाई  के  बाद  हमें  बड़े  प्यार  से  , हमारे नाज़ नख़रे  उठाते हुए  मनाया जाए।  
                                              टीवी   कभी  सरगोशियाँ  सी करता  है  और कभी इतनी जोर से  चिल्लाता  है की ये  मुए  कान  पलँग  के नीचे  पनाह  माँगते  दिखते  हैं  ,  फर्श  पे  कान  चिपकाए पैरों  की  आहट  सुनने  की  कोशिश  की  लेकिन  कहीं  हूँ - चूँ   भी  नहीं  , लगा  आज  तो  ये  घर  बाढ़  में  डूबा  ही  डूबा  --, गँगा  , जमुना , सरस्वती , नर्मदा , कावेरी , ( ना , हम  अपनी  याददाशत   को  दाद नहीं  दे रहे   की  स्कूल  में  पढ़ा  हुआ  भूगोल  हमें  इस  उमर  में  भी  याद है.) सारी  नदियाँ एक  साथ   जो  बह  रही  थी और  किसी  के  कान  पे  जूं  तक  ना  रेंग  रही  थीं।
                                     नदियाँ  बही  , गुस्सा  उबला  , और  ये  लो  जल  गई  सब्जी,  जलने  की  महक  ना हमारी  नाक  में  घुसी  ना  ही   किसी  और  की  नाक  में , निगोड़ी  पता  नहीं  किस  सूराख  में  से  निकल  भागी।
          ज़हन  में  एक  कीड़ा  कुलबुलाये  जा   रहा  था  की  एक  बार  ज़रा  झाँक  आये   ,देख आये की  किसी  को  हमारी  फ़िक्र  है  भी  की  नहीं  लेकिन फिर  हमने  जी  कड़ा  कर पट्ट  से उस  कीड़े  को मसला  और  धम्म से  वहीँ  जम   गए।
                       हम  कोई  जमाने  से  उल्टी   गंगा  थोड़ी  ना  बहा   रहे  हैं  , सदियों  से  सदियों  का दस्तूर  तो बीविओं  के  रूठने  का  ही  है  , मौक़ा - मसला  कुछ  भी  हो  और  शौहर  का  ये  फ़र्ज़ ,   की   वो   नाज़ुक  सी  बीविओं  को  मनाएँ,  (  कितनी  भी  तीखी  हो  लेकिन  कहलाना  तो  सभी  नाज़ुक ही  चाहती   हैं )  एक  थी  हमारी  पड़ोसन  , जब  सीढियाँ  उतरती  थीं  तो  हमारा   कलेजा  कमर  कस  छलांग लगाने  को  मुँह   में तैयार  बैठ  जाता  था , जब  तक  वो  सीढियाँ  उतर  न लेती  हम  दाँत  भीचें ,  चुप  लगाये   बैठे  रहते  थे।
                                                                                  अगर    पतिदेव  ने  सुन  लिया  कि  हम  अपने आपको  नाज़ुक  की  कतार  में  खड़ा  कर  रहे  हैं  तो  पक्का  हँसते - हँसते  उनके  दाँत   ग्लास  से बाहर   आ  कबड्डी  खेलने  में  जुट  जायेंगे।
                                       हमारे  " उनको"  गुस्सा  अक्सर  तब  आता  है  जब  हम  उनको  प्यार  से  बुढऊ   कहते  हैं  तो  वो हमारे  पूरे  खानदान  की  बुढ़ौती  का  ऐसा  नक्शा   खींचते  हैं  कि  बड़े  से  बड़ा  नक्शा   नवीस  बगलें  झाँकने  लगे ,   जब  वो  खाका  खींच  रहे  होते तो   उसी  समय  हम  बड़े  प्यार  से  एक  कच्चा  सा  अमरुद  सामने  कर  बड़े  धीमे  से  कहते  " खाओगे " ( इसे  कहते  हैं  आग  में  घी  का  कनस्तर  पलटना ) अजी , गंगा  में  डुबकियाँ  लगाते  ,छतों  पे  कूदते - फाँदते  इस  उमर  में  पहुंचे  हैं , वो  बनारसी  ही  क्या  जो  हार  मान  जाए। 
                खैर , आज  मसला  दूसरा  था , गोया  इतना  संजीदा  भी  नहीं  था  की  कोई  हमें  मनाने  ना आये। 
                                                                      बात  तो  इतनी  सी  ही  थी  तलाक  का  मुक़दमा  कौन  दायर   करे  , पहले  तो  इसी  बात  पे  घन्टो   बहस  चली  की  किसके   हिस्से  में  क्या - क्या  आएगा   फिर  बोले - 'ठीक   है  मैं  दायर  करता  हूँ  बस  तुम  अंगूठा  लगा  देना '

( अब  कोई  तलवार  खींचें  तो  चुप  कैसे  रहा  जाए )

हम  दहाड़े -" पढ़े - लिखे  हैं  हम  '

शोखियों  पे  फिसलता  हुआ  सामने  से  जवाब  आया  ठीक  है   साइन  ही  कर दीजियेगा। 
                                                            जब  बहस  में  अखबार  एक  तरफ  सरका  दिया  गया था  हमें  तभी  समझ  जाना  चाहिए  था  की दाल  में  कुछ  काला  जरुर  है  ,  भोले  बाबा  की  नगरी  के  हम  तो  हैं  ही  बजरबट्टू।  
             अखबार  के  पीछे अपनी  मुस्कराहट  छिपाते  हुए  महाशय  बोले  -" चलो  भई  खाना  खिलाओ , क्या  बनाया  है  ? , हम  तो  तुम्हारा टाइम  पास कर  रहे  थे  , दिन  भर  खली  रहती  हो  और  शिकायत  भी  करती  हो  की  हम  तुमसे  बातचीत  नहीं  करते "
                       बीविओं  को चिढाने का  सबसे  कारआमद  तरीका है  की  अखबार  में  मुँह  दे  कर  बैठ  जाओ भले  ही  वो सुबह  से  चाट -चाट  कर  गीला  किया जा  चुका  हो। 
                                            धाँय ---- हमारे  दिमाग  के  कपाट  खुले  और  हमें  ये  ज्ञान  प्राप्त  हुआ  की  हम  बेवकूफ  बनाये  जा चुके  हैं  ,  ये  बाज़ी  तो  हो  गई  इनके  नाम.
                                                                       हज़ार  मर्तबा  दुपट्टे  में  गाँठ  लगाईं की  इनसे  पंगा  नहीं  लेंगे  लेकिन  इधर दुपट्टा  धुला  और  साथ  ही  हमारी  याददाश्त। 
                                                       पैर  पटकते  हुए  हम  बाहर  आ  कर  बैठ  गए  और  इंतज़ार  में  हैं  की  हमें  मनाने  कोई  तो  आएगा  !!!
                                              


                        
                  

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