Saturday 28 September 2013

तुम्हारी एक हलकी सी आहट
और मुस्कराहट पाँव पसार कर बैठ गई
हमने साथ में बरसों के चावल बीने
और
दिनों के कंकर उठा
खिड़की से बाहर फेंके ,
 बनफशा  के फूलों सी
 रात की स्याही में
  सपनो की नावें खेई
पलकों पे धरी ओस की बूंदों को
तारों की धूप  से थपक सुला दिया ,
        अब
बेतरतीब सी बैठी हूँ
आओ
सिखा  जाओ मुझे भी 
हुनर
वापस लौट पड़ने का !!



Sunday 22 September 2013

कुछ  ढूँढ  रहे  हो ना  ,
        मिला कहीं?
रख  कर  भूल  गए  हो  शायद ,
समय , दिन , तारीख़
  मत पूछो
   कि
कब  दिया  था तुम्हे ,

लौटा पाओगे क्या ?

जो मुझे भी नहीं मिलता। .

शायद तुम्हे ही मिल जाये

तुम में ही तो खोया है।

मेरी जमीन

मेरा आसमान

Saturday 21 September 2013

कमाल का कमाल
दिखा रहे हैं
वो सारे जुगनू
जो रख गए हो
तुम
मेरी आँखों में !!!!

Monday 16 September 2013

    दम  साधे  वो उसको सुन रहा था
                                       अपने  माथे  की  लकीरों  को  खुद  ही  बाँच लूंगी  और अपने  अनगढ़   हाथों  से  लाल - पीले रंगों में रंग भी लूंगी , जब सारे रंग चुक जायेंगे ,  जब सारे रंग चुक गए,  तो तुझसे उधार माँगने चली आई , तूने भी मुस्कुरा के,  दहलीज़ पे खड़े-खड़े , मेरी कूची एक ही रंग से भर दी।
                                                                            
                                                                           वो आधी पीठ मोड़े  सुनता रहा

                                      उसने अपनी खाली  आँखों को छुआ  , कोई आँसू  लुढ़का  ही  नहीं ,  पहाड़ों पर  बर्फ जमनी शुरू हो गई थी।  उसने  अपने आपको आसमान , पहाड़ और ज़मीन  में गुम  कर लिया।

                                                                     आज भी जब कोई उससे सारे रंग माँगने आता तो उसे आधी पीठ मोड़े उसी जगह खड़ा  पाता।

                                         इश्क ! तेरा  फैसला
                                       मेरी कौम के सर माथे

                                      

                                    

   
                                                                                  
                                                         
                                                                                     
                                                            

Sunday 15 September 2013



सारा कमरा घूम रहा था , लेकिन कमरे की

चीज़ें अपनी जगह थी , फर्श और अर्श एक

हुए जा रहे थे तब भी हम अपनी जगह से तिल मात्र भी खिसके नहीं थे आखिर चक्कर क्या था , कानो में अभी तक शताब्दी ट्रेन की सीटियाँ गूँज रही थीं ,

वही शताब्दी जो अभी - अभी हमारी बिटिया के एक जुमले की वजह से हमारे एक कान से धडधडाते हुए दूसरे कान से गुजर गई थी , अपने होशो- हवास को काबू में करते हुए कहा ----- "बेटा जी क्या कहा आपने"


बिटिया भी तो हमारी ही थीं

( करेला वो भी नीम चढ़ा)


बोलीं ---- " इस बार दिवाली पर मैं सलवार कमीज़ पहनूगी और दुपट्टा भी "

सुन कर हमारे तो सारे त्यौहार एक दिन में ही मन गए , उनका इरादा बदलने से पहले आनन् फानन में हम उन्हें बाज़ार ले गए .

दर्जी को जब नाप देने का वक़्त आया तो एक बार फिर से हम आकाश पाताल की सैर करने लगे , बिटिया ने फिर बड़ी बूढियों की तरह समझाया " माँ आजकल backless का फैशन है"




और दुपट्टा ? हम मिमियाए

जब बिटिया ने दुपट्टे का नाम लिया था तभी से हमें " हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का " ये गाना चारों तरफ सुनाई ही नहीं दिखाई भी दे रहा था , लेकिन दुपट्टे के नाम पे उनकी उस पतली सी पट्टी ने हमारे ख्वाबों की ऐसी धज्जियाँ उड़ाई की तौबा तौबा . हम सहम कर दूकान से बाहर आ गए की कहीं वो गुजर चुकी शताब्दी वापस हमारे कानो में आकर न खड़ी हो जाए ।


चुपचाप बिटिया को ले कर घर पहुंचे जो गर्मी- गर्मी रटे जा रही थीं , पता नहीं कैसे हैं ये बच्चे जो AC से बाहर निकलना ही नहीं चाहते और एक हम थे की अम्मा चिल्लाती रह जाती और हमें खेलने से फुर्सत न मिलती ।


उमस भरी दोपहर में हम सूरज से इतना कहते आ भाई थोड़ी देर के लिए आँख मिचौली खेल ले , थोड़ी गर्मी कम हो जाएगी लेकिन उन्हें तो लुत्फ आता था अम्मा से हमें डांट पडवाने में , अम्मा चिल्लाती ---सो जा मरी , सारा दिन धमा चौकड़ी , उछल कूद , लू लग जायेगी , गर्मी छुट्टियाँ हमेशा से ही हमारे लिए और अम्मा के लिए मुसीबत का बायस बनती थीं , चीख चीख कर अम्मा का गला बैठा रहता और बरफ के गोले खा- खा कर हमारा।


जब पूरे घर में सन्नाटा होता , दोपहर की ऊँघ का मक्खियाँ भी जब मज़े ले रही होती तब हम गली के लड़को की टोली में घुस दोपहर और छुट्टियों का सदुपयोग कर रहे होते ।

एक आँख मीच के और जीभ को गोल घुमाते हुए नाक और ऊपरी होंठ के बीच में टिका कर हम किसी कंचे पर निशाना साधे तो मज़ाल है की वो इधर उधर फुदक जाए , कंचे खेलने में अव्वल दर्जे की महारत हासिल थी हमें । एक और खेल जिसमे कोई हमारा मुकाबला नहीं कर पाता था, वो था साइकिल के पुराने टायर को डंडी से हांकना , जिसका टायर जितनी दूर चला वो जीता । यहाँ हम अपने लड़की होने का पूरा- पूरा फायदा उठाते थे , बाकी सबकी एक बाज़ी और हमारी दो , कोई ऐतराज़ करता तो हम बड़ी शराफत और मासूमियत से कहते - जरा दुपट्टा सँभालते हुए टायर चला कर दिखाए कोई , ये करतब तो सिर्फ हमी कर सकते हैं गोया दुपट्टा संभालना ना हुआ सर्कस का कोई खेल हो गया ।

हम टायर दौडाते हुए चले जा रहे थे , हमारी चप्पलें कब हमें अलविदा कह के चली गई हमें पता भी नहीं चला और किसी जौहरी को भी खुर्दबीन की जरुरत पड़ जाती हमारे बालों का रंग बताने के लिए ।

भगवान भी बड़े इत्मीनान से हमें टायर हांकते हुए देख रहे थे , एक पल सिर्फ एक पल को उनकी नज़र हमपे से क्या हटी की तूफ़ान ही आ गया ।

हम टायर के साथ दौड़े जा रहे थे और हमारे पीछे- पीछे दौड़ने में साथ दे रही थी हमारी टोली तभी बगल से एक गाडी गुज़री , पिताजी खिड़की से सर निकाल , नहीं शरीर के आधे हिस्से को सर कहना ठीक न होगा , लगभग खिड़की से लटके हुए भौंचक्के से अपनी प्यारी लाडो को पहचानने की कोशिश कर रहे थे ,गज़ब की फुर्ती दिखाते हुए हमने घूंघट किया , सच्ची पहली बार हमें इस घूँघट नाम की बला की अहमीयत पता चली फिर भी आज तक पता नहीं चला की उन्होंने हमें पहचाना कैसे ?

पेशी तो होनी ही थी , हुई भी , वो क्या बोल रहे थे कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था ( कान बंद करने की आदत तो हमें बचपन में ही लग गई थी) और वैसे भी हमारा पूरा ध्यान तो उनकी मूछों पे था , हम अपने ख्यालों में उनकी मूछों को बैंगनी रंग में रंग कर उसपे झूला डाल पींगे लेने की तैयारी कर ही रहे थे की हमारी बिटिया ने हमें बचपन से सीधा सच्चाई के धरातल पे ला खड़ा किया ।

एक ये बच्चे हैं इनके दोस्त भी इनकी ही तरह शांत , कोई हल्ला गुल्ला शोर शराबा नहीं , सब अपने अपने फोन पे बिजी , कभी समझ ही नहीं पाए की फोन को देख के मुस्कुराने में क्या मज़ा आता है । खेल भी खेलेंगे तो कुर्सी पे बैठे बैठे , भगवान् की ही समझ में आता होगा की कौन से स्कोर का कौन सा रिकॉर्ड रोज़ रोज़ तोडा जाता है।

वो कहकहे , वो आसमान से ऊँचा उड़ना

धरती को बाहों में समेटना

बगुलों पर सवारी करना

कहानियाँ , शैतानियाँ

पूड़ी अचार के चटखारे

काश

हमारे बच्चे भी

इनसे

थोड़ी पहचान बढ़ाते ।

Thursday 12 September 2013

उतरती है मेरे तुम्हारे बीच
    एक पगडण्डी अक्सर
सीधी सपाट
निर्जला
कंठ में काँटे  सहेजे
पसरती हैं चुप्पियाँ
इस सिरे से उस सिरे तक
पगडण्डीयाँ  हमेशा
रस्ता  नहीं
हुआ करती !!!!
उत्कंठा है
        तुम्हारे साथ
 खेलने की
हर किसी से जीत कर
    तुमसे हारने की
दाँव  पे रखूँगी
      अपने
   पाप -पुण्य
 धर्म -अधर्म
इक्षा -अनिक्षा
     "मैं"
और पा जाऊँगी
चिर -प्रतीक्षित  हार में
चिर -लक्षित जीत
     "तुम"

Saturday 7 September 2013





ऊँह  बड़ी  देर   हो  गई  एक  तरफ  मुँह  करके  बैठे  हुए , कम्बखत  कितने  तो  उधड़े   कपडे  सिये   जाएँ  और  कितने  दिनों   तक  की  सब्जी  काटी  जाए  ,  कनखियों  से  देखते - देखते  आँखे  ही तिरछी  हो गई  शुक्र  की  गर्दन   अभी  तक  सीधी   है , महसूस  तो ऐसा  हो  रहा  है  की कुछ  पलो  से नहीं  जन्मो  से  यंही  चौकड़ी मारे  बैठे हैं  और   कोई   हमें  मनाने  आया  ही  नहीं ,  ये रूठना  मनाना  भी  ऐसा होता  है  जैसे  एक दाँत   से  कमरख   काटा  जा  रहा  हो  और   दूसरी  तरफ  गुड़   की  डली   ज़बान  पे  पिघल  रही  हो  .
                                         
                                                            बालों   में  चाँदी   जिस  हिसाब  से  दुगुनि - चौगुनि   होती  जा  रही  है  उसी  हिसाब  से  हमारा  ये  शौक  भी  बढ़ता  जा रहा  है  हर  लड़ाई  के  बाद  हमें  बड़े  प्यार  से  , हमारे नाज़ नख़रे  उठाते हुए  मनाया जाए।  
                                              टीवी   कभी  सरगोशियाँ  सी करता  है  और कभी इतनी जोर से  चिल्लाता  है की ये  मुए  कान  पलँग  के नीचे  पनाह  माँगते  दिखते  हैं  ,  फर्श  पे  कान  चिपकाए पैरों  की  आहट  सुनने  की  कोशिश  की  लेकिन  कहीं  हूँ - चूँ   भी  नहीं  , लगा  आज  तो  ये  घर  बाढ़  में  डूबा  ही  डूबा  --, गँगा  , जमुना , सरस्वती , नर्मदा , कावेरी , ( ना , हम  अपनी  याददाशत   को  दाद नहीं  दे रहे   की  स्कूल  में  पढ़ा  हुआ  भूगोल  हमें  इस  उमर  में  भी  याद है.) सारी  नदियाँ एक  साथ   जो  बह  रही  थी और  किसी  के  कान  पे  जूं  तक  ना  रेंग  रही  थीं।
                                     नदियाँ  बही  , गुस्सा  उबला  , और  ये  लो  जल  गई  सब्जी,  जलने  की  महक  ना हमारी  नाक  में  घुसी  ना  ही   किसी  और  की  नाक  में , निगोड़ी  पता  नहीं  किस  सूराख  में  से  निकल  भागी।
          ज़हन  में  एक  कीड़ा  कुलबुलाये  जा   रहा  था  की  एक  बार  ज़रा  झाँक  आये   ,देख आये की  किसी  को  हमारी  फ़िक्र  है  भी  की  नहीं  लेकिन फिर  हमने  जी  कड़ा  कर पट्ट  से उस  कीड़े  को मसला  और  धम्म से  वहीँ  जम   गए।
                       हम  कोई  जमाने  से  उल्टी   गंगा  थोड़ी  ना  बहा   रहे  हैं  , सदियों  से  सदियों  का दस्तूर  तो बीविओं  के  रूठने  का  ही  है  , मौक़ा - मसला  कुछ  भी  हो  और  शौहर  का  ये  फ़र्ज़ ,   की   वो   नाज़ुक  सी  बीविओं  को  मनाएँ,  (  कितनी  भी  तीखी  हो  लेकिन  कहलाना  तो  सभी  नाज़ुक ही  चाहती   हैं )  एक  थी  हमारी  पड़ोसन  , जब  सीढियाँ  उतरती  थीं  तो  हमारा   कलेजा  कमर  कस  छलांग लगाने  को  मुँह   में तैयार  बैठ  जाता  था , जब  तक  वो  सीढियाँ  उतर  न लेती  हम  दाँत  भीचें ,  चुप  लगाये   बैठे  रहते  थे।
                                                                                  अगर    पतिदेव  ने  सुन  लिया  कि  हम  अपने आपको  नाज़ुक  की  कतार  में  खड़ा  कर  रहे  हैं  तो  पक्का  हँसते - हँसते  उनके  दाँत   ग्लास  से बाहर   आ  कबड्डी  खेलने  में  जुट  जायेंगे।
                                       हमारे  " उनको"  गुस्सा  अक्सर  तब  आता  है  जब  हम  उनको  प्यार  से  बुढऊ   कहते  हैं  तो  वो हमारे  पूरे  खानदान  की  बुढ़ौती  का  ऐसा  नक्शा   खींचते  हैं  कि  बड़े  से  बड़ा  नक्शा   नवीस  बगलें  झाँकने  लगे ,   जब  वो  खाका  खींच  रहे  होते तो   उसी  समय  हम  बड़े  प्यार  से  एक  कच्चा  सा  अमरुद  सामने  कर  बड़े  धीमे  से  कहते  " खाओगे " ( इसे  कहते  हैं  आग  में  घी  का  कनस्तर  पलटना ) अजी , गंगा  में  डुबकियाँ  लगाते  ,छतों  पे  कूदते - फाँदते  इस  उमर  में  पहुंचे  हैं , वो  बनारसी  ही  क्या  जो  हार  मान  जाए। 
                खैर , आज  मसला  दूसरा  था , गोया  इतना  संजीदा  भी  नहीं  था  की  कोई  हमें  मनाने  ना आये। 
                                                                      बात  तो  इतनी  सी  ही  थी  तलाक  का  मुक़दमा  कौन  दायर   करे  , पहले  तो  इसी  बात  पे  घन्टो   बहस  चली  की  किसके   हिस्से  में  क्या - क्या  आएगा   फिर  बोले - 'ठीक   है  मैं  दायर  करता  हूँ  बस  तुम  अंगूठा  लगा  देना '

( अब  कोई  तलवार  खींचें  तो  चुप  कैसे  रहा  जाए )

हम  दहाड़े -" पढ़े - लिखे  हैं  हम  '

शोखियों  पे  फिसलता  हुआ  सामने  से  जवाब  आया  ठीक  है   साइन  ही  कर दीजियेगा। 
                                                            जब  बहस  में  अखबार  एक  तरफ  सरका  दिया  गया था  हमें  तभी  समझ  जाना  चाहिए  था  की दाल  में  कुछ  काला  जरुर  है  ,  भोले  बाबा  की  नगरी  के  हम  तो  हैं  ही  बजरबट्टू।  
             अखबार  के  पीछे अपनी  मुस्कराहट  छिपाते  हुए  महाशय  बोले  -" चलो  भई  खाना  खिलाओ , क्या  बनाया  है  ? , हम  तो  तुम्हारा टाइम  पास कर  रहे  थे  , दिन  भर  खली  रहती  हो  और  शिकायत  भी  करती  हो  की  हम  तुमसे  बातचीत  नहीं  करते "
                       बीविओं  को चिढाने का  सबसे  कारआमद  तरीका है  की  अखबार  में  मुँह  दे  कर  बैठ  जाओ भले  ही  वो सुबह  से  चाट -चाट  कर  गीला  किया जा  चुका  हो। 
                                            धाँय ---- हमारे  दिमाग  के  कपाट  खुले  और  हमें  ये  ज्ञान  प्राप्त  हुआ  की  हम  बेवकूफ  बनाये  जा चुके  हैं  ,  ये  बाज़ी  तो  हो  गई  इनके  नाम.
                                                                       हज़ार  मर्तबा  दुपट्टे  में  गाँठ  लगाईं की  इनसे  पंगा  नहीं  लेंगे  लेकिन  इधर दुपट्टा  धुला  और  साथ  ही  हमारी  याददाश्त। 
                                                       पैर  पटकते  हुए  हम  बाहर  आ  कर  बैठ  गए  और  इंतज़ार  में  हैं  की  हमें  मनाने  कोई  तो  आएगा  !!!